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क्यों नहीं मैं राह में पत्थर बनूँ / अवधेश्वर प्रसाद सिंह

क्यों नहीं मैं राह में पत्थर बनूँ।
दुल्हनें बाहर नहीं अंदर बनूँ।।

उन दरिंदांे को मजा सिखला सकूँ।
हब्शियों के हाथ क्यों कमतर बनूँ।।

चाहती तो हर गली मैं घूमती।
जो भी हूँ उससे नहीं बदतर बनूँ।।

मनचले सब बन गये हैवान हैं।
आज मैं खुद क्यों नहीं ख़ंजर बनूँ।।

आबरू जिसको नहीं अच्छी लगे।
उसके आगे क्यों भला सुंदर बनूँ।।