भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्यों नहीं / राजीव रंजन प्रसाद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारा खत पढा
फिर पढा..
कितने ही टुकडे चाक कलेजे के
मुँह को आ पडे
थामा ज़िगर को
और बिलकुल बन चुका मोती भी चूने न दिया
फिर पढा तुमहारा खत
और शनैः-शनैः होम होता रहा स्वयमेव

एक एक शब्द होते रहे गुंजायित
व्योम में प्रतिध्वनि स्वाहा!
नेह स्वाहा!
भावुकता स्वाहा!
तुम स्वाहा!
मैं स्वाहा!
और हमारे बीच जो कुछ भी था....स्वाहा!

आँखों को धुवाँ छील गया
गालों पर एक लम्बी लकीर खिंच पडी
जाने भीतर के वे कौन से तंतु
आर्तनाद कर उठे..शांतिः शांतिः शांतिः

अपनी ही हथेली पर सर रख कर
पलकें मूंद ली
ठहरे हुए पानी पर हल्की सी आहट नें
भवरें बो दीं
झिलमिलाता रहा पानी
सिमट कर तुम्हारा चेहरा हो गया

लगा चीख कर उठूं और एक एक खत
चीर चीर कर इतने इतने टुकडे कर दूं
जितनें इस दिल के हैं.....
हिम्मत क्यों नहीं होती मुझमे??

२३.०४.१९९५