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क्यों पूछ-पूछ जाती है / अज्ञेय

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 क्यों पूछ-पूछ जाती है तारक-नयनों की झपकी-
क्या अभी अलक्षित ही हैं किरणें तेरे दीपक की?
इस जीवन के सागर में मेरा रस-बिन्दु कहाँ है?
सब ओर चाँदनी छिटकी-मेरी ही इन्दु कहाँ है?
शशि घन में छिप सकता है-मेरा शशि नहीं छिपेगा-

पर इस अभिमान भरोसे कब तक यह प्राण रहेगा?
'आओगे', इस आशा में 'हो दूर' की छिपी तड़पन-
जब स्रोत हुआ हालाहल कैसी तन्मयता, जीवन!
अच्छा होता कि हताशा अतिशय पूरी हो जाती-

तेरी अनुपस्थिति से ही मैं अपने प्राण बसाती!
जब विरह पहुँच सीमा पर आत्यन्तिक हो जाता है-
हो कर वह आत्म-भरित तब प्रियतम को पा जाता है।
सागर जब छलक-छलक कर भी शून्य अमा पाता है-
तब किस दुस्सह स्पन्दन से उस का उर भर आता है!

1935