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क्यों बयाबाँ बयाबाँ भटकता फिरा / निश्तर ख़ानक़ाही

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क्यों बयाबाँ-बयाबाँ[1] भटकता फिरा क्यों परीशाँ रहा ग़म गज़ीदा रहा[2]
आज इक नौजवाँ मुझसे कहने लगा, कैसा पागल था दामन दरीदा[3] रहा

मेरी राहों में गुमनाम गलियाँ भी थीं क़स्र-ए-याराँ[4]भी था शहर-ए-अग़यार[5] भी
मैं किसी आस्ताने[6] का पत्थर न था, बू-ए-गुल[7]था कि हर सू[8] परीदा[9] रहा

अजनबी बन के रातों की तन्हाई में मुझसे मेरा पता पूछते ही रहे
ये मेरे लब जो बरसों मुक़्फ़्फ़ल[10] रहे,ये मेरा सर जो सदियों ख़मीदा[11]रहा

जाने कितने मुसाफिर यहाँ आए हैं अन-गिनत नाम हैं सब्क़-ए-मेहराब[12] पर
इक पुरानी इमारत के साए तले मैं बहुत देर तक आबदीदा[13] रहा ।

तुम क़िताबों में महफ़ूज़[14] कर लो मुझे, क्या अजब है कोई पढ़ने वाला मिले
मैं वह आवाज़ हूँ जिसका सामेअ[15] नहीं मैं वह लहजा हूँ जो नाशुनीदा[16] रहा

शब्दार्थ:

   1. ↑ वीराना, जंगल
   2. ↑ ग़म का काटा हुआ
   3. ↑ दामन फटा हुआ
   4. ↑ दोस्तों के महल
   5. ↑ गैर का शहर
   6. ↑ ड्योढ़ी, दहलीज
   7. ↑ फूल की ख़ुशबू
   8. ↑ चारों तरफ़
   9. ↑ उड़ता हुआ
  10. ↑ ताला बंद
  11. ↑ झुका हुआ
  12. ↑ ऊपरी जगह
  13. ↑ आँसू भरी आँखें
  14. ↑ सुरक्षित
  15. ↑ सुननेवाला
  16. ↑ जिसे सुना नहीं गया है