क्यों मुझे प्रिय हों न बन्धन ! / महादेवी वर्मा
क्यों मुझे प्रिय हों न बन्धन !
बन गया तम-सिन्धु का, आलोक सतरंगी पुलिन सा;
रजभरे जगबाल से है, अंक विद्युत् का मलिन सा;
स्मृति पटल पर कर रहा अब
वह स्वयं निज रूप-अंकन!
चाँदनी मेरी अमा का भेंटकर अभिषेक करती;
मृत्यु-जीवन के पुलिन दो आज जागृति एक करती;
हो गया अब दूत प्रिय का
प्राण का सन्देश-स्पन्दन!
सजलि मैंने स्वर्णपिंजर में प्रलय का वात पाला;
आज पुंजीभूत तम को कर, बना डाला उजाला;
तूल से उर में समा कर
हो रही नित ज्वाल चन्दन!
आज विस्मृति-पन्थ में निधि से मिले पदचिह्न उनके;
वेदना लौटा रही है विफल खोये स्वप्न गिनके;
धुल हुई इन लोचनों में
चिर प्रतीक्षा पूत अंजन!
आज मेरा खोज-खग गाता लेने बसेरा,
कह रहा सुख अश्रु से ‘तू है चिरंजन प्यार मेरा’;
बन गए बीते युगों को
विकल मेरे श्वास स्पन्दन!
बीन-बन्दी तार की झंकार है आकाशचारी;
धूलि के इस मलिन दीपक से बँधा है तिमिरहारी;
बाँधती निर्बन्ध को मैं
बन्दिनी निज बेड़ियाँ गिन!
नित सुनहली साँझ के पद से लिपट आता अँधेरा;
पुलक-पंखी विरह पर उड़ आ रहा है मिलन मेरा;
कौन जाने है बसा उस पार
तम या रागमय दिन!