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क्यों रोती हो, प्रियंवदा / कुमार रवींद्र
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इस
सुनसान घाट पर बैठी
क्यों रोती हो, प्रियंवदा
यहाँ नदी की धार तेज है
नाव भी नहीं है कोई
लगता, कोई बेशकीमती
चीज़ तुम्हारी है खोई
यहाँ
व्यर्थ में अपना आपा
क्यों खोती हो, प्रियंवदा
यहाँ न आता है अब कोई
बड़े घाट पर सब जाते
हुए प्रपंची इस कलजुग में
सारे ही रिश्ते-नाते
इस रेती में
अपने आँसू
क्यों बोती हो, प्रियंवदा
अँधियारा है घना इन दिनों
गहन लगा है सूरज को
खोज रही हो यहाँ अकेले
तुम अपने किस अचरज को
कौन पाप -
तुम बार-बार
जिसको धोती हो, प्रियंवदा