क्यों रोती हो तुम शरद की हवा / मात्सुओ बाशो
३१.
देखता चारों तरफ़
गौर से, ध्यान देता:
सूमा में शरद
३२.
सुबह की बर्फ़
उगते हुए प्याज़ के कल्ले
निशान लगाते हैं बगीचे में अपना
३३.
आह वसंत, वसंत
महान होता है वसंत
इत्यादि
शरद, १६८०
३४.
मकड़ी, क्या है यह,
किस आवाज़ में – क्यों – रोती हो तुम
शरद की हवा
३५.
शारोन का ग़ुलाब
एक विवस्त्र शिशु के केशों में
फूलों की एक फुहार
३६.
रात को, छिपकर
सूराख़ करता हुआ पांगर के तने में
चाँदनी में एक कीड़ा
३७
मेरा विनम्र विचार है
रसातल ने ऐसा ही होना चाहिए -
शरद की संध्या
३८.
सूख गई एक टहनी पर
ठहर गया है एक कौवा –
शरद की शाम
३९.
कहाँ है जाड़ों की फुहार?
हाथ में छाता लिए
वापस लौटता है भिक्षु
४०.
(नौ वसन्त और शरद मैंने शहर में बिताए – संयम के साथ. अब मैं वापस लौट आया हूँ फ़ूकागावा नदी के तट पर. किसी ने एक दफ़ा कहा था – “पुराने समय से ही, चांग-आन नाम और धन कमाने की जगह रही है. बड़ी मुश्किल है यहाँ खाली हाथों वाले, गरीब मुसाफ़िर के लिए.” क्या इसलिए कि मैं ख़ुद ग़रीबी में धँसा हुआ हूँ, मुश्किल है मेरे लिए इन भावनाओं को समझ सकना?)
झाड़ से बने फाटक के बाहर
चाय की पत्तियों को बुहारती है
आँधी
४१.
(फुकागावा की एक ठंडी रात में भावनाएं)
लहरों पर पड़ते पतवार सुनाई देते हैं
पेट को जमा देने वाली रात –
और आँसू
४२.
(अमीर लोग माँस खाते हैं, कड़ियल जवान खाते हैं सब्ज़ियों की जड़ें; मगर मैं निर्धन हूँ)
बर्फ़ीली सुबह
अकेला, मैं चबा ही लेता हूँ
सूखी सामन मछली
४३.
मुरझा गई चट्टानें
पानी कुम्हलाए –
सर्दियों का अहसास तक नहीं
४४.
जागो! जागो!
दोस्त बना जाए
सोती हुई तितली
४५.
(झूआंग्ज़ी के एक पोर्ट्रेट के सामने)
तितली! तितली!
मैं पूछूंगा तुमसे
चीन की हाईकाई की बाबत
- हाईकाई – लघु कविता का एक रूप.
गर्मियां १६८१-८३
४६.
(दोपहर के फूल का साहस)
बर्फ़ में भी
कुम्हलाता नहीं दोपहर का फूल:
रोशनी सूरज की
४७.
दोपहर के फूल की बगल में
एक धान कूटने वाला सुस्ताता है
किस कदर छू लेने वाला यह दृश्य
४८.
कोयल:
बचे नहीं अब
हाईकाई के उस्ताद
४९.
सफ़ेद गुलदाऊदी, सफ़ेद गुलदाऊदी
उतनी सारी शर्म तुम्हारे
लम्बे बालों, लम्बे बालों पर
सर्दियां १६८१-८३
५०.
काले जंगल:
तो अब क्या है नाम तुम्हारा?
बर्फ़ की एक सुबह
वसन्त १६८१
५१.
पानी के शैवालों में झुण्ड में तैरतीं
सफ़ेद मछलियाँ: उन्हें हाथ में थामा जाए
गायब हो जाएँगी
५२.
(रीका ने मुझे केले का एक पौधा दिया)
बाशो को रोप चुकने के बाद
अब नफ़रत करता हूँ मैं उस से
अँकुवाती हैं बाँसुरियां
गरमियाँ १६८१
५३.
कोयल,
क्या तुम्हें न्यौता दिया गया था
बीजों से सजी जौ ने?
५४.
गरमियों की बारिशों में
छोटी हो जाती हैं
सारस की टांगें
५५.
बेवकूफों की तरह, अँधेरे में
जुगनुओं को खोजता
वह थाम लेता है एक काँटा
५६.
चन्द्रमा के फूल सफ़ेद
रात को आउटहाउस की बगल में
हाथ में मशाल
शरद १६८१
५७.
“संयम और सफाई से जियो!”
चन्द्रमा को देखते रहने वाला बैरागी
पीता हुआ गीतों को.
५८.
मेरी फूँस-ढँकी झोपडी में भावनाएँ
आँधी में केले का पेड़: चिलमची में टपकती हुई
बरसात को सुनने की एक रात
सर्दियां १६८१-८२
५९.
एक मामूली पहाड़ी मन्दिर में
पाले में काँपती एक केतली
आवाज़ जमी हुई
६०.
फूँस-ढँकी इस झोपडी में पानी खरीदते हुए
अपनी प्यास बुझाते एक चूहे के मुँह में
कड़वी है बर्फ़