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क्यों सच की सस्ती इज़्ज़त होती है / उदय कामत

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क्यों सच की सस्ती इज़्ज़त होती है
हर अश्क की मंफ़ी क़ीमत होती है

औरों के लिए जीना औ मरना तो
ज़ाहिद की कहाँ ये फ़ितरत होती है

तुम सिर्फ़ हो मेरे और बस हो मेरे
सुनकर ये कहाँ अब हैरत होती है

ख़ुश्बू को लुटाना तो फूलों की महज़
मीरास में हासिल आदत होती है

हर क़ैस की मजनू में तब्दीली तय
हर लैला कि क्यों ये क़िस्मत होती है

जो पहले सदा बे-मोजिब मिलते थे
क्यों मिलते हैं अब जब फुर्सत होती है