क्यों हार जाता है / पूनम मनु
वह जब भी छूता है धूप को प्रेम से
वह लजाती हुई स्वयं में ठहर जाती है
रक्तिम मुख उजला होते ही
धरा के कण-कण में बिखर जाता है प्रेम।
वह जब भी देखता है मेघ को नेह से
वह पानी-पानी हो जाता है
धरती माता का आँचल नम हो तब
उर्वरता के नए प्रतिमान गढ़ता है।
वह जब भी ललकारता है तम को ज़ोर से
वह अनमनयस्क हो जाने किधर जाता है
चाँद आँगन में उतर आता है।
वह जब भी गाता है जीवन-राग
जीवन का हर कोना हरा हो जाता है।
वह जब भी थाप देता है माटी को
वह गर्व से फूलकर सोना हो जाती है
पोर-पोर अंकुआता है।
वह जब भी पुकारता है माँ को भोर में
माँ... माँ... मैं खेतों पर जाता हूँ
सवेरा टूक-टूक हो जाता है।
वह ईश्वर को जीत लेता है पौरुष से...
पर जाने क्यों
वह बैंक के कर्ज़ व
बिचोलियों की मिलीभगत से हार जाता है।