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क्रांति ज्योति सावित्रीबाई फुले / बाल गंगाधर 'बागी'

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सावित्री हमारी अगर माई न होती
तो अपनी कभी भी पढ़ाई न होती
जानवर सा भटकता मैं इंसान होकर
ज्योति शिक्षा अगर तूं थमाई न होती

ये देह माँ ने दिया पर सांस तेरी रही
ये दिया ही न जलता गर तूं बताई न होती
किसकी अंगुली पकड़ चलता मैं दिन ब दिन
गर तूं शिक्षा की सरगम सुनाई न होती

गीत हम गा रहे हैं, जो खुशी के लिए
जुबां ही न खुलता गर तूं आयी न होती
कौन कहता ये अहसान नहीं भूलना
नारी विधवा दलित गर उठाई न होती

जख़्म पर कौन ममता का मरहम लगाता
डाक्टर बन अगर की दवाई न होती
न शादी विधवाओं का होता कभी
केशवपन को अगर तूं मिटाई न होती

अनपढ़ बेढंगी यह दुनिया समझती
ज्ञान का बिगुल गर बजाई न होती
अछूतों का कोई नामों निशां न होता
तोड़ी जाति की अगर कलाई न होती

बरसता मजलूमों के आंखों से सावन
गोद में ले अगर माँ, हंसाई न होती
कौन जलते हमारे बदन को बचाता
धूप में छाँव बन गर तू, छाई न होती

ज़ुल्म से बचाती क्या, आंचल में ढंक के
ज़ालिमों पर अगर माँ, सवाई न होती
मर्तबा आसमां से, बड़ा न उसका होती
जाति खाई से हमें गर, उठाई न होती

क्या तेरे ऊपर लिखूं, मैं तो कुर्बान हूँ
ये कलम गर हमारी, तुम्ळारी न होती
पहनाता क्या आँसू की माला तुम्हें
माँ दौलत अगर ये तुम्हारी न होती

मैं न होता मेरा कोई, अफसाना क्या
मेरी तहरीर गर मेरी माई न होती
कौन माँ सी निगहबां यहाँ सोचता
माँ कलम की अगर तू, सिपाही न होती

कोई आलिम न होता जहाँ में यहाँ
माँ सबक गर यह सबको पढ़ाई न होती
समता शिक्षा का तूफान चलता भी क्या
‘बाग़ी’ फूले संग लड़ी गर लड़ाई न होती