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क्रीड़त प्रात समय दोउ बीर / सूरदास

क्रीड़त प्रात समय दोउ बीर ।
माखन माँगत, बात न मानत, झँखत जसोदा-जननी तीर ॥
जननी मधि, सनमुख संकर्षन कैंचत कान्ह खस्यो सिर-चीर ।
मनहुँ सरस्वति संग उभय दुज, कल मराल अरु नील कँठीर ॥
सुंदर स्याम गही कबरी कर, मुक्त-माल गही बलबीर ।
सूरज भष लैबे अप-अपनौ, मानहुँ लेत निबेरे सीर ॥

भावार्थ :-- सवेरे के समय दोनों भाई खेल रहे हैं ! वे माखन माँग रहे हैं और मैया यशोदा से झगड़ रहे हैं, उसकी कोई दूसरी बात मान नहीं रहे हैं ! मैया बीच में है, बलराम उसके आगे हैं और पीछे से कन्हाई के खींचने से माता के मस्तक का वस्त्र खिसक गया है । ऐसा लगता है मानो सरस्वती के संग बाल-हंस और मयूर-शिशु ये दोनों पक्षी क्रीड़ा करते हों । श्यामसुन्दर ने माता की चोटी हाथों में पकड़ रखी है और बलराम जी मोती की माला पकड़कर खींच रहे हैं । सूरदास जी कहते हैं कि मानो अपना-अपना आहार (सर्प और मोती) लेने के लिये दोनों पक्षी (मयूर और हंस)अपने हिस्से का बँटवारा किये लेते हों ।