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क्रूरताएँ बढ़ रहीं अब / तारकेश्वरी तरु 'सुधि'

क्रूरताएँ बढ़ रहीं अब, सुप्त हैं संवेदनाएँ।

 जिस दिशा जाती नजर ये,
 लोग सब टूटे हुए से।
 है थके-से तन सभी मन,
 स्वप्न बाकी अनछुए से।
 उम्र से पहले हुई हैं, वृद्ध सारी कामनाएँ।

बोझ बस्तों का उठाकर,
 खो गया बचपन कहीं पर।
 कैद की नन्ही हँसी भी,
खेल गलियों से हटाकर।
 बंद कमरों में सिमटकर, रह गई सब कल्पनाएँ।

 अब हताशा में युवा भी,
 नौकरी लेकिन कहाँ पर?
 सब्जबागों की बदौलत,
 घिस रहे चप्पल यहाँ पर।
 जो बने रक्षक वही अब, दे रहे हैं यातनाएँ।