क्रूर अतीत / विजेन्द्र
एक क्रूर अतीत भी जीवित है
मेरी रंगो में
मेरी आँखो की रोशनी में
मेरे रोंयो की सजगता में
कहाँ से लाऊँ वे इरादे
वे सत्य
व फल, वे बेचैन साँसें
जो बताएँ पीठ पर उछरे
कोड़ो के निशाने के बारे में
माथे पर उमड़े काले गूँमड़े
कहाँ है उनकी बे-आवाज चीखें
जिन्हें दास बनाके
जिंदा ही मार दिया गया
इतिहास में उन्हें कहाँ खोजूँ
धरती में दबी उनकी कराहटें सुनूँ
हजारो शहीदों की समाधियों ने
मुक्ति के बीज बोये हैं।
कमाई गई धरती को उजाड़ो मत
वे ही बीज अंकुरित होकर
बने हैं पेड़, फून और फल
आज उन्हें फिर कटते-सूखते देखता हूँ
मुझे वे चहरे भी दिखओ
जिन्होंने थक कर भी
समर में हार नहीं मानी
अन्न पक कर मरता नहीं है
हवा, जल, आकाश, धूल
उसे फिर से
नया जन्म देती हैं।
मैं वर्षा, सूर्य और ऋतुओं कें बीच ही
बड़ा हुआ हूँ
ओ चलने वाले समर
तू औरो को निराष कर सकता है
मुझे नहीं
उधर देखो, उधर-
बादल की तड़क और कौंध के बाद
साफ क्षितिज भी दिखा है।
2007