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क्रोध-मोह-मद-अघ भर्यौ, धर्यौ हृदय अभिमान / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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क्रोध-मोह-मद-अघ भर्यौ, धर्यौ हृदय अभिमान।
सब कौं तुच्छ गनौं, करौं सबही कौ अपमान॥
प्रभु-बंचक, बंचक-जगत, निज-बंचक, अघधाम।
ड्डँस्यौ इंद्रियन के विषयँ, नित मैं भोग-गुलाम॥
प्रेमी, ग्यानी, भक्त, संत-बड़े दूर की बात।
नरक-कीट मैं मोहबस, पापनिरत दिन-रात॥
मो-सौ अधम न पातकी या जग में कोउ और।
स्वर्ग-भोग की का कथा, नरकहुँ में नहिं ठौर॥
सब सौं नित सेवा लहौं, करौं, भंड उपदेस।
हिय में तनिक न कतहुँ कहुँ, संतपने कौ लेस॥
ड्डूटै मेरौ पाप-घट, घृना करैं सब लोग।
अपनी करनी के विषम भोगूँ मैं सब भोग॥
प्रभु! मोकूँ यह दीजिये, करुनामय! बरदान।
जासौं मेरे अघ कटैं, होय परम कल्यान॥