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क्रौंच के ये वंशधर / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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नींद में ही बड़बड़ाते हैं कबूतर!
स्वप्न में जब फड़फड़ाते हैं कटे पर!

क्रौंच के ये वंशधर
जब भी उड़ानों के लिए
निकले खुले आकाश में
तब-तब
अहेरी की कुटिलता ने
इन्हें बांधा
जकड़कर पाश में
हाशियों में थरथराते मौन
वे पल खून से तर!

ध्वस्त नीड़ों में सहमकर सो रहे
लेकिन लगाकर पंख
उड़ जाती अचानक नींद है
यातनाओं का
विगत इतिहास चुभता है
अनी-सा
और जाता बींध है
युग-युगों से कंपकंपाते दंश
आंखों में उतरकर!