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क्रौंच वध / भाग - 4 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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”ओ क्रूर! निष्करुण!! देख आज
जो दृश्य उपस्थित किया यहाँ
क्षण-भर में तूने; बता अरे
तुझ जैसा निष्ठुर और कहाँ?

वह देख, फड़फड़ा पंख उड़ी
नभ की गोदी में जा रोई।
चिल्लाती ‘क्रौंच-क्रौंच मेरा
रे छीन रहा मुझसे कोई’!!

आ गये क्रौंच अगणित कितने
सुन कर करुणामय चीत्कार।
चिल्लाते द्रवित हृदय उनके
भी ‘क्रौंच-क्रौंच’ कह बार-बार॥

पशु-पक्षी भी अपने उर में
रखते हैं प्रेम-सहानुभूति।
निश्चय ही ये दो हैं जग के
अप्रतिम भाव, अनुपम विभूति?

हत चेतन, तन छटपटा रहा,
गिर पड़ी अरे नीचे भू पर।
है भूल चुकी वे खेल सभी
खेले थे जो नभ में ऊपर॥

जब आँखमिचौली की कोमल
क्रीड़ाएँ होतीं क्षण-क्षण में।
अब आँखमिचौली हुई सदा
के लिए आज इस जीवन में॥

जब हो विभोर आनन्द-नृत्य
में मस्त झूमती खोई-सी।
पर अब खो कर सर्वस्व मधुर
निश्चेष्ट पड़ी है सोई-सी॥

जब निकट पहुँचने के अवसर
ढूँढ़ा करती थी पल-पल में।
पाती यदि कोई एक शीघ्र
झट-झपट मार भगती जल में॥

है आज पड़ा रे निकट क्रौंच
अवसर भी है उसके अपने।
पर वह उत्कंठा, झपट मधुर
रह गये सभी केवल सपने॥

ओ देख, वज्र-उर देख उधर
वह भगी जा रही हो पागल।
उन कूल-कछारों में, जो ये
दो क्षण पहले मृदु क्रीड़ा-थल॥

चिल्ला-चिल्ला कर पूछ रही
उनसे ‘मेरा प्रिय क्रौंच कहाँ?’
ये मौन दिशाएँ भी उसकी
प्रतिध्वनित कर रहीं व्यथा यहाँ॥

तमसा का उर भी द्रवीभूत
हो रहा देख उसकी पीड़ा।
क्यों नहीं? नेत्र-भर देखी है
उसने उनकी मधुमय क्रीड़ा॥

देखी ही नहीं, खिलाया है
अपनी गोदी में दोनों को।
हिलराया है, दुलराया है
अपने सुन्दर मृग-छौनों को॥

बह रहा सकल जीवन ही बन
आँसू की वेगवती धारा।
किसका न जगत उजड़ा खो कर
गोदी का रम्य रत्न प्यारा?

क्यों धधका करती है निशि-दिन
बड़वाग्नि उदधि के अन्तर में?
छिन गये रत्न उसके अनुपम
ऐसे ही सुन्दर पल भर में॥

उनकी स्मृति में हो कर विह्वल
जीवन उसका रहता अशांत।
उठती है लहर प्रश्न बन कर
उत्तर मिलता ‘हो मौन शांत’॥

उर की पीड़ा भी व्यक्त कौन
कर पाया रे इस जीवन में?
उर्मियाँ गर्जना कर उठतीं,
झुक वहीं समा जातीं क्षण में॥

क्रौंची भी यदि अपने उर की
अभिव्यक्त वेदना कर पाती।
क्षण भर भी पा अवकाश कहीं
दो अश्रु-बिन्दु ढुलका पाती॥

हिल जाता कण-कण एक-एक
चट्टानें बहतीं पिघल-पिघल।
पृथ्वी का अन्तरतम फट कर
आहें भरता संतप्त विकल॥

वक्षःस्थल हो जाते विदीर्ण
घन-मालाओं के अम्बर में।
विद्युत के वज्र हृदय के भी
टुकड़े-टुकड़े होते पल में॥

ऐसी दुर्घटनाओं की फिर
जग में आवृत्ति न हो पाती।
आखेटक, तेरी दुनिया भी
मृगया का खेल समझ जाती॥

संसार जिसे कहता तेरा
अपने जीवन का खेल मधुर।
कितना महँगा पड़ता है वह
भाले जीवों के जीवन पर!!

अन्तरम की वेदना विकल
वे व्यक्त नहीं कर पाते हैं।
अन्तिम आहें भर कर अपनी
चुपचाप वहीं सो जाते हैं॥

अपनी पीड़ा भी एक बार
कहने तक का अधिकार न हो!
अन्तिम साँसें भी पीड़ित की
सहने जो जग तैयार न हो!!

उसको भी क्या अधिकार यहाँ
अपना संसार बसाने का?
है नृशंसता की सीमा यह
प्रण मेरा उसे मिटाने का॥

भाले निर्दोष निरीह जीव
बनते तेरे जग के शिकार।
पर सुनने वाला कौन यहाँ
उनके अन्तरतम की पुकार!!

वह देख, आ गया विकल वहाँ
बैठी सिर नीचे कर तट पर।
है खोज रही जल में अपने
जीवन-साथी को झुक झुक कर॥

हा, डूब गई रे वह जल में,
हो गया वियोग असह्य उसे।
है अपने जीवन-साथी की
बिछुड़न जीवन-भर सह्य किसे?

संतोष फड़फड़ाती डैने
आ गई पुनः सरिता-तट पर।
पगली थी, कूद पड़ी जल में
रे अपनी ही छाया लख कर॥

समझी मिल गया क्रौंच उसको,
झपटी वह अंक लगाने को।
पर आज स्वयं उसकी अपनी
छाया ही हुई जलाने को॥

सच है-जब दुर्दिन पड़ते हैं,
अपने भी उलटे हो जाते।
जो आज बने शीतल हिम-से
वे कल विद्युत बन कर आते॥

सह सका न औरों के कोई
दो क्षण भी कल्पित आशा के।
जीवन कर सकता नष्ट विश्व
उन पर बन मेघ निराशा के॥

वह देख रही है निर्निमेष
उन युग्मों को जो व्योम-बीच।
जा रहे उड़े निज नीड़ों में,
उर पर पीड़ा की रेख खींच॥

विश्राम-हेतु जाते लख कर
स्मृति कर वह ‘क्रौंच क्रौंच’ रोई।
विश्राम कहाँ उसको जग में
साथी न रहे जिसका कोई!!

वह विकल उड़ी फिर से ऊपर
साथी की खोज लगाने को।
सोचती-छिपा हो पंक्ति-बीच
प्रिय क्रौंच मुझे तरसाने को॥

है घूम रही विह्वल हो कर
विस्तृत अनन्त में चिल्लाती!
‘है क्रौंच कहाँ?’ यह ध्वनि विलीन
हो करुण शून्य में खो जाती!!

मिली निराशा उसे सिर्फ,
वह थकित भ्रमित चेतना-हीन।
गिर पड़ी पार्श्व में प्रिय-शव के
छटपटा रही हो विवश, दीन॥

पृथ्वी के दो तारे अनुपम
क्रीड़ा करते रहते दिन में।
गिर पड़ा टूट कर एक, और
दूसरा विकल अन्तिम क्षण में॥

दुर्देव क्रूर! तू देख सका
जग में न किसी का भी सुख रे!
अब हुआ मुझे यह ज्ञात विश्व-
सुख की अन्तिम सीमा दुख रे!!

दिन की है अन्तिम अवधि रात
तम प्रकाश की अन्तिम रेखा।
हैं अश्रु हास्य की अन्तिम इति
यह आज नेत्र भर-भर देखा॥

पुष्पों का खिल खिल मुरझाना
दीपक का जल जल बुझना ही!
मेघों का बन बन मिट जाना
है सत्य यही, बस इतना ही॥

इस जग की शीतल छाया में
मानव यदि सुख की खोज करे।
अंगार दहकते छिपे हुए
पायेगा, उनमें जले, मरे॥

हट दूर क्रूर! हो शीघ्र विमुख
अन्तिम घड़ियाँ उसकी भी गिन!
तुझ-से हिंसक प्राणी का तो
चलता है इनसे ही जीवन!!“