क्षण भर ही को जीवित कर लो / राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल
क्षण भर ही को जीवित कर लो
तो अस्तित्व अमर हो जाए।
कण भर का आभार करो तो
गोवर्धन ऊपर उठ जाए।।
अंगारों के पथ पर चलकर
तुमने अंतरिक्ष को स्पर्श किया।
बीहड़ घाटी, वन मरूथल को
पद दल करने संघर्ष किया।
सागर का मंथन कर
नवयुग को विषपान दिया है।
धरती की कोख खोदकर
माणिक हीरों का वरदान लिया है।
किन्तु कभी करूणा से विगलित
मानवता को झुककर नमन करो तो
धरती स्वयं स्वर्ग हो जाए।
क्षण भर ही को जीवित कर लो
तो अस्तित्व अमर हो जाए
कण भर का आभार करो तो
गोवर्धन ऊपर उठ जाए।।
दर्प रूप का ऐसा मन में
हर दर्पण भावन लगता है।
हरियाली कुछ ऐसी भरी आँख में
हर मौसम सावन लगता है।
हर वैभव में इन्द्र समझने वाले लोगों
लंका कुबेर की क्या प्रंवचना है?
नख शिख श्रृंगारों में रूप देखने वालों,
मटियाली मजार या पावन अर्थी क्या छलना है?
अन्तरतम की चेतनता को आंक सको तो
सत्य मय शिव संवर-संवर सुंदर हो जाए
क्षण भर ही को जीवित कर लो
तो अस्तित्व अमर हो जाए
कण भर का आभार करो तो
गोवर्धन ऊपर उठ जाए।
मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे में
घाट-घाट में अलख जगाता
कंचन काया की गठरी बांधे
उसकी ही मस्ती में माता
अलग-अलग राहों बाटों में
उलझ व्यर्थ क्यों भरमाता
रिक्त हृदय ले व्यस्त रहा तू
पूजा यज्ञ अनुष्ठानों में
चित्त चेतना ढूँढ रहा तू
चमत्कार की दुकानों में
लो दुलार दुख बोझिल बचपन को
मुक्ति सिमट तुम तक आ जाए।
क्षण भर ही को जीवित कर लो
तो अस्तित्व अमर हो जाए।
कण भर का आभार करो तो
गोवर्धन ऊपर उठ जाए।।
ज्ञान पंथ की विद्युत रेखा
आत्मिकता को कर अनदेखा
गाते मंगल गान
विघ्वंसों की परछाई में
दैहिक सुख की भरपाई में
पलता महाप्रलय का वरदान
मानव-मानव के बीहड़ जंगल में
पशुता होती है अभिनंदित
हिंसा का ताण्डव अनवरत
कुटिलता होती है वंदित
उर के उर्वर मरूथल में
आज रक्त की धारा सिंचित
भीगे आँसू से सुधा फुहार दो
सृष्टि अमर हो जाए
कण भर का आभार करो तो
गोवर्धन ऊपर उठ जाए।