क्षतशीश, मगर नतशीश नहीं / जगदीश गुप्त
कब किसने कहा, प्रखर था स्वर
कैसी थी विषम परिस्थिति, पर-
निर्द्वन्द्व भाव, से उपजे आखर
क्षतशीश मगर, नतशीश नहीं।
संघर्षमयी वाणी उपजी,
जीवन-संकट से त्राण मिला
जन-मन-लेखा उद्धोष हुआ
क्षतशीश मगर नतशीश नहीं।
संकल्पशील सदवृत्ति जगी
सब ऊहापोह समाप्त हुआ
नि:संशय गूँजा युद्ध घोष
क्षतशीश मगर नतशीश नहीं।
स्वप्न के भीतर स्वप्न
स्वप्न-भूमि के
कितने स्तर मिलते हैं
किसी के स्वप्न में मैं
दूसरे के स्वप्न में वह
ब्रह्म को सृष्टि में शिव
शिव की कल्पना में विष्णु
महाकाली सब को
निगलती हुई
उवलता की ओर
सतत तैरती हुई
दिवा-रात्रि की तरह
क्रमेण ढलता जीवन।
मधुमय आलोक-पुंज
छत्ता बनाता हुआ।
रस टपकाता हुआ।
तारों-सा टूट-टूट गिरता
अकस्मात।
आकाश गंगाएं
दिव्यता की ज्योति-सी
उभरती, घिरती, बिखरती
गतिमान बनी रहती
सूर्य की झालर
मीलों तक फैलती
लहराती बल खाती
अणुओं की शक्ति का
अपार पारावार
अकल्पनीय
फिर भी रमणीय
साथ ही असहनीय।