क्षमा करो पुत्र / प्रकाश मनु
(अपने नौजवान भतीजे मंदीप की हत्या पर)
क्षमा करना पुत्र !
कि मेरे पास शब्द नहीं है आग नहीं है
चुक गई है कविता मेरी
चुक गया मैं आप।
क्षम करना पुत्र !
कि भीतर से जब राख हो चुकी हैं
हड्डियां,
रंगहीन हो चुके फूल
तब एक भड़भड़ाते तूफान के विक्षोभी धक्के से
तुमने नींद से जगाया
मुझे झिंझोड़कर-
कि पकड़ो...पकड़ो... वो गए...
वो रहे अपराधी... डाकू क्रूर ।
और अपने पागल दुस्साहस से
अनजाने जान दे दी
कि जैसे यह खेल हो...!
अरे...! इतना खतरनाक ?
कि जैसे हथेली पर लाल गरम अंगार
जिससे धधक रही है छाती
लहू में आग...
अब रहक रहा है चेहरा मेरा
होंठ फटे-फटे
और सामने राख पर टप-टप टपकती
एक क्रूद्ध लहू की कहानी... !
कुछ ऐसे लाल... यकदम लाल
कि शब्दों में कही नहीं जाती।
इसमें कितनी व्यर्थता है
कितनी शहादत है
कितनी शहादत
लोगों को माथापच्ची कर-करके यह हिसाब
लगाने दो पुत्र !
लोगों को अपने-अपने मूर्ख तराजुओं पर
करने दो भरोसा
ओर तुम वहां जाओ-अपने तेज लेकिन धीरजवान कदमों से
जहां जाने के लिए तुम बने थे...
अकुला रहे थे अपने बालपन की हठ में
न जाने कब से !
जाओ, हमें छोटा और अकिंचन करते हुए पुत्र
जो कि
यों तो हम शुरू से थे
लाल टीके सा हमारा आशाीर्वाद लेकर।
मगर यह जो तुमने
हमारी मुर्दा हड्डियों के पास रख दिया है
अंगार
और उसमें धधक रही है जो
आग उसका हम क्या करें
बताओ ओ उŸार-पथिक !
क्षमा करो पुत्र !
कि हम जिंदगी की रोजमर्रा की
लड़ाइयों
(कड़ाहियों !) में
भुनते-भुनते
सीधी साी सादा सी
भाषा तक भूल गए...
जैसे प्यार, जैसे गुस्सा जैसे उदासी जैसे
प्रतिकार और जेैस दुस्साहस...
पत्थर फोड़कर पानी निकालने का !
हमारी आस्थाएं पोली है वत्स !
हमारे इरादे खोखले।
तुम गए: असमय गए
लेकिन जाते-जाते
हम बूढ़ों-अधबूढ़ों को
जबरन धक्का देकर
फिर जिंदगी के जलते अलावों के
करीब फेंक गए !