भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्षितिज छोर पर फिर है संध्या रचने लगी रंगोली / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्षितिज छोर पर फिर है संध्या रचने लगी रंगोली।
लगा पपीहा फिर से जपने प्रेम-मंत्र की बोली॥

धरती की सब धूल सुनहरी
हुई प्रेम से सिंच कर।
कोकिल कंठ भरी मादकता
आम्र बौर से खिंच कर।

चूम कली को चपल भ्रमर फिर बन बैठा हमजोली।
लगा पपीहा फिर से जपने प्रेम-मंत्र की बोली॥

मन पर पहरे धडकन के
प्राणों पर हावी साँसें।
फिर दे गए रंगीले सपने
इन नैनो को झांसे।

प्रणय दान है भीख नहीं प्रिय मत फैलाना झोली।
लगा पपीहा फिर से जपने प्रेम-मंत्र की बोली॥