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क्षिप्रा / सुरेश सलिल

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बेतवा का पानी अभी सूखा नहीं है...
कभी नहीं सूखा है शायद बेतवा क पानी
(जगनिक के वक़्त भी नहीं!)...
मगर क्षिप्रे,
ओ कविकुलगुरु की मुँहबोली क्षिप्रे,
तुम्हें मैं कहाँ तलाशूँ ?

सवारियों से लदे-फंदे टेम्पो-स्कूटर
तुम्हारी छाती पर दौड़ रहे हैं
और छिदरे-बिखरे, बने-अधबने घरौंदे
इस सिरफिरे इतिहासन्वेषी को मुँह चिढ़ा रहे हैं!
चलो, हम-तुम मालविकाग्निमित्र की और लौट चलें,
भर लें वर्तमान के आँचल में इतिहास की स्मृति!