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क्षुद्र स्वार्थ का नाश करो प्रभु / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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क्षुद्र स्वार्थ का नाश करो प्रभु! कर दो मनको अभी महान।
’प्राणिमात्रका स्वार्थ, स्वार्थ है मेरा’-इसको ले मन मान॥
’मैं’-की सीमा अखिल विश्वके व्यापक ’मैं’-में मिल जाये।
’सबके हितमें ही अपना हित’-यह निश्चय नहिं हिल पाये॥
सब भूतोंमें तुम्हीं भरे हो, सभी तुम्हारे ही हैं देह।
सबकी पूजामें तव पूजा, सबका नेह तुम्हारा नेह॥
छोटे-बड़े, देव-दानव-मानव, पशु-पक्षी हैं तव रूप।
वृक्ष-पहाड़, नदी-नद-सागर, व्योम-वायुमें वही स्वरूप॥
वही पूर्ण हो तुम पृथ्वीमें, तुम्हीं अग्रिमें छाये हो।
सूर्य-चन्द्र-नक्षत्र-ज्योतिमें सबमें सदा समाये हो॥
तुम्हीं चराचर सकल विश्वमें, सदा तुम्हारा यह परिचय।
सभी दिशा‌ओं, सभी दशा‌ओं, सब देशोंमें तुम निश्चय॥
सभी रसोंमें, रूप सभीमें, सभी दृश्य-दर्शनमें तुम।
तुम ही द्रष्टस्न बने सदा ही, तुम्हीं देखते तुममें तुम॥
तुम्हीं स्वप्न-जाग्रत-सुषुप्तिमें, तुम्हीं तुरीय-रूप प्यारे!।
भूत-भविष्यत्‌‌-वर्तमानका तुम्हीं विचित्र रूप धारे॥
जीवन-मृत्यु, मिलन-बिछुडऩ बन तुमही सबमें आते हो।
लाभ-हानि, मानापमानमें अपना रूप छिपाते हो॥
सदा सभीमें तुम्हें देखकर सबका सदा करूँ समान।
नाथ! कृपा कर मुझे आज ही दे दो यह सुन्दर वरदान॥