भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्षोभ के त्योहार / सोम ठाकुर
Kavita Kosh से
छोड़कर फिर
बोलती खामोशियों का हाशिया
दृष्टि से तुमने मुझे बौना किया
दृष्टि आदिम सृष्टि जैसी
जो भरे खुद में
चहकती भरी दौड़ी दोपहर
बेताब संध्याएँ
कपूरी रात की उड़ती हुई नींदे
जमी आकाश गंगायें
एक पल कुछ भी बिना बोले हुए
तुमने मुझे दुहरा दिया
हाशिया
जो तोड़ता है स्वप्न --झूले सेतु
कस्तूरी परस के
अब नही गिनते कभी जो
कसमसाते माह, बहके दिन बरस के
आज बस एकांत हम ने
क्षोभ के त्योहार से बहला लिया
दृष्टि से तुमने मुझे बौना किया