खंडिता प्रकरण / सूरदास
काहे कौं कहि गए आइहैं, काहैं झूठी सौ हैं खाए ।
ऐसे मैं नहिं जाने तुमकौं, जे गुन करि तुम प्रगट दिखाए ।
भली करी यह दरसन दीन्हे, जनम जनम के ताप नसाए ।
तब चितए हरि नैंकु तिया-तन, इतनैहि सब अपराध समाए ॥
सूरदास सुंदरी सयानी, हँसि लीन्हें पिय अंकम लाए ॥1॥
धीर धरहु फल पावहुगे ।
अपनेहीं सुख के पिय चाँड़े, कबहूँ तौ बस आवहुगे ॥
हम सौं कहत और की औरै, इन बातनि मन भावहुगे ।
कबहूँ राधिका मान करैगी, अंतर बिरह जनावहुगे ॥
तब चरित्र हमहीं देखैंगी, जैसें नाच नचावहुगे ।
सूर स्याम अति चतुर कहावत, चतुराई बिसरावहुगे ॥2॥
मैं हरि सौं हो मान कियौ री ।
आवत देखि आन बनिता-रत, द्वार कपाट दियौ री ॥
अपनैं हीं कर साँकर सारी, संधिहिं संधि सियौ री ॥
जौ देखौं तौ सेज सुमूरति, काँप्यौ रिसनि हियौ री ॥
जब झुकि चली भवन तैं बाहरि, तव हठि लौटि लियौ री ।
कहा कहौं कछु कहत न आवे, तहँ गोविंद बियौ री ।
बिसरि गई सब रोष, हरष मन, पुनि करि मदन जियौ री ॥
सूरदास प्रभु अति रति नागर, छल मुख अमृत पियौ री ॥3॥
नंद-नँदन सुखदायक हैं ।
नैन सैन दै हरत नारि मन, काम काम-तनु दायक हैं ॥
कबहूँ रैनि बसत काहू कैं, कबहूँ भोर उठि आवत हैं ।
काहू कौ मन आपु चुरावत, काहू कैं मन भावत हैं ॥
काहू कैं जागत सगरी निसि, काहूँ विरह जगावत हैं ।
सुनहु सूर जोइ जोइ मन भावै, सोइ सोइ रँग उपजावत हैं ॥4॥
नाना रँग उपजावत स्याम । कोउ रीझति, कोउ खीझति बाम ।
काहू कैँ निसि बसत बनाइ । काहू मुख छुवै आवत जाइ ।
बहु नायक ह्वै बिलसत आपु । जाकौ सिव पावत नाहिं जापु ।
ताकौं ब्रजनारी पति जानैं । कोउ आदरैं, कोउ अपमानैं ।
काहु सौं कहि आवन साँझ । रहत और नागरि घर माँझ ।
कबहुँ रैन सब संग बिहात । सुनहु सूर ऐसे नँद-तात ॥5॥
अब जुवतिनि सौं प्रगटे स्याम ।
अरस-परस सबहिनि यह जानी, हरि लुब्धे सबहिनि कैं धाम ॥
जा दिन जाकैं भवन न आवत, सो मन मैं यह करति बिचार ।
आजु गए औरहिं काहू कै, रिस पावति, कहि बड़े लबार ॥
यह लीला हरि कैं मन भावत, खंडित बचन कहत सुख होत ।
साँझ बोल दै जात सूर-प्रभु, ताकैं आवत होत उदोत ॥6॥
राधिका गेह हरि-देह-बासी । और तिय धरनि धर तनु-प्रकासी ॥
ब्रह्म पूरन द्वितीय नहीं कोऊ । राधिका सबै हरि सबै वोऊ ।
दीप सौं दीप जैसैं उजारी । तैसें ही ब्रह्म घर-घर बिहारी ॥
खंडित बचन हित यह उपाई । कबहुँ कहुँ जात, कहु नहिं कन्हाई ।
जन्म कौ सुफल हरि यहै पावैं । नारि रस-वचन स्रवननि सुनावैं ॥
सूर-प्रभु अनतहीं गमन कीन्हौं । तहाँ नहिं गए जहँ बचन दीन्हौ ॥7॥