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खंडित नील पर्वत / संतलाल करुण

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अब भी
उन सुदूर नील पर्वतों से
बातें करता मन
निस्संज्ञ हो जाता है
बातों-बातों में
मधुमय निश्शब्दता
असंख्य अस्फुट नूपुरों से छमकते
छाया-लास्य की तरह
मुझे तन्मय कर देती है
फिर उन विराट क्षणों में
उन नीली ऊँचाइयों तक
उन्हीं के बराबर
मैं बहुत ऊपर
उठ जाया करता हूँ।

अब भी
वे नीलकांत चोटियाँ
अपनी ऊँचाई पर
कसकर बाँध लेती हैं मुझे
जीवन-संस्पर्श देती
उनकी उत्फुल्ल
नील-लोहित आभा का
उनकी प्रियदर्शन
घाटियों की सुघढ़ता का
वैसे ही थिर
अभिराम सौन्दर्य
मुझे देर-देर तक
टस-से-मस
नहीं होने देता।

अब भी
वे अप्रतिम एकांत पहाड़ियाँ
जीवन का रंगस्थल लगती हैं
उनका नील-हरित आँचल
उतना ही निकट लगता है
उतनी ही हृदमाल
लगती हैं उनकी मृदुल बाँहें
धुँधले-धुँधले क्षितिज से
ऊपर उठती
बहुरंगी चित्रलेख की तरह
ढेरों बातें करतीं वे पर्वत शिखाएँ
कितनी मौन, कितनी मुखर होती हैं
पूरी तरह अब भी
मेरा सामना किए हुए।

पर अब
उन नील पर्वतों से
भूलकर भी नहीं उभरता
एक भी इन्द्रधनुष
नहीं कौंधती एक भी तड़ित
अब उनकी शिखाओं पर नहीं घिरते
शीतल, जलद मेघ
अब उनकी चोटियों की फाँकों में
नहीं उगता
चंदमुख
अब वहाँ
तारा कोई नहीं दिखता।

ओ मेरे मन के देवता!
मैंने ऐसा
टूटा हुआ
नीलगिरि नहीं माँगा था
मैंने नहीं माँगी थी
ऐसी नेत्रविहीन
सिर-कटे धड़-जैसी सपनीली चोटियाँ
जहाँ से निर्दय बेहेलिए के समान
सारे स्वर्णिम-रजतमय सौन्दर्य पर
वज्रपात कर
मेघ, चन्द्र, तारक, तड़ित
तुमने सब काटकर
फेंक दिए।

हे देवता!
तुम अपने किस देवत्व के बल पर
मुझे इस ऊँचाई पर
इस नीले, अंध शून्य में
उठा लाए हो
जहाँ से न धरती दिखती है
न धरातल
न ही आसमान का वह आलोक
जिसे पाने का
मैंने वरदान माँगा था।
( लो! अब हर लो तुम,
अपना यह खण्डित नीलपर्वत भी )