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खंडित मन / महेन्द्र भटनागर

विश्वास

टूटता है जब
हिल उठती है धरती
अन्तर की,
अन्दर-ही-अन्दर
अपार रक्त-ज्वार बहता है !

लेकिन
व्यक्ति मौन रह
कुटिल - नियति के
संहारक प्रहार सहता है,
मूक अर्द्ध-मृत
अंगारों की शैया पर
पल-पल दहता है !

चीत्कारों और कराहों की
पृष्ठभूमि पर
मर - मर जीता है,
अट्ठहास भर - भर
काल-कूट पीता है !

विश्वास टूटता है जब,
साथ छूटता है जब !