रेत पर
उभरी हथेली
और बिसरे नाम !
आ गई फिर शाम !
तैरते जाते
हवा में
टूटते अनुबंध
जुड़ गया
परछाइयों से
अनकहा सम्बन्ध
दे गया
मौसम किसी
भूकम्प का पैग़ाम !
आ गई फिर शाम !
झाँकती
हर कोण से
मन की अस्वीकृतियाँ
ताज़गी को
रौंदतीं
बोझिल परिस्थितियाँ
हो गए खंडित
दिवस के
स्वप्न सब अविराम !
आ गई फिर शाम !