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खंड-13 / पढ़ें प्रतिदिन कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा

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हर्षित हूँ मैं हृदय से, पाकर यह सम्मान।
सरस्वती की यह कृपा, जैसे है वरदान।।
जैसे है वरदान, अन्यथा मैं हूँ बालक।
सबकुछ प्रभु के हाथ, विश्व के जो प्रतिपालक।।
मैं हूँ अति अल्पज्ञ, नहीं हो सकता चर्चित।
सुख-टुख को सम जान, सदा रहता हूँ हर्षित।।

बनता है सौभाग्य से, अगर कृषक मजदूर।
उसमें बस निर्माण का, पलता भाव जरूर।।
पलता भाव जरूर, सृष्टि का है वह पालक।
भोजन वस्त्र मकान, सभी का है संचालक।
कह “बाबा” कविराय, जोश हरदम है रखता।
होता अगर विकास, श्रमिक निर्णायक बनता।।
  
होता है मजदूर ही, हम सबका आधार।
वह करता है अन्य के, सपने सब साकार।।
सपने सब साकार, उसी पर विश्व टिका है।
लेता श्रम का मूल्य, नहीं ले दाम बिका है।
कह “बाबा” कविराय, धैर्य रख सपने बोता।
श्रम का चाहे मूल्य, श्रमिक मजबूर न होता।।

सबके चिन्तन भिन्न हैं, भिन्न-भिन्न हैं राय।
देखें बहुत विकल्प तो, सोचें सरल उपाय।।
सोचें सरल उपाय, बुद्धि खुद आप लगाएँ।
लें विवेक से काम, कल्पना सफल बनाएँ।।
रहे समर्पण भाव;जगत में सबकुछ रव के।
करें वही सत्कर्म, बने हित जिससे सबके।।

श्रद्धा जननी ज्ञान की, है यह जिसको ज्ञात।
वह गुरुजन से ज्ञान पा, हुआ विश्वविख्यात।।
हुआ विश्वविख्यात, मन्त्र यह जिसने जाना।
देते सब सम्मान, जगत उसको पहचाना।।
पशुवत वह बिन ज्ञान, वृद्ध हो या हो वृद्धा।
वही बने विद्वान, पास हो जिसके श्रद्धा।।
 
 
अपना तन मन धन लगा, उपजाता है अन्न।
हालत क्यों हर कृषक की, रहती आज विपन्न।।
रहती आज विपन्न, ध्यान सरकार न देती।
जीवन का आधार, सभी का है यह खेती।।
जब भारी ऋण भार, चुकाना होता सपना।
फिर अपना अस्तित्व, त्याग वह देता अपना।।
 
पालक जो हर जीव के, रोते आज किसान।
क्यों है उनकी दुर्दशा, हमसब दें कुछ ध्यान।
हमसब दें कुछ ध्यान, सहे जब मार कुदरती।
कभी आग या बाढ़, कहीं बंजर है धरती।।
होकर घोर निराश, स्वयं का बनकर घालक।
देते जीवन त्याग, हमारे हैं जो पालक।।
 
आयी अद्भुत वस्तु है, देखें सभी जनाब।
धरती पर से लुप्त है, यह है एक किताब।।
यह है एक किताब, जिसे पढ़ते थे पूर्वज।
शब्दकोश में नाम, सुनेंगे अपने वंशज।।
मोबाइल में बन्द, आज की वृहद पढ़ाई।
हुए अचम्भित लोग, कहाँ से पुस्तक आयी।।
 
आकर बैठी नायिका, कर सोलह श्रृंगार।
आ जाओ प्रियतम अभी, होगा अति उपकार।।
होगा अति उपकार, विरह दुख देता भारी।
आकर कर दो शान्त, समझ मेरी लाचारी।।
बैठी हूँ ले आस, प्रणय की सेज सजाकर।
कर दो जीवन धन्य, शीघ्र ही साजन आकर।।
 
कैसे कोई पा सके, लाख लगा ले जोर।
थाह न चलती सृष्टि की, कहीं ओर या छोर।।
कहो ओर या छोर, नहीं ही जान सके हम।
विस्तृत तीनों लोक, मात्र अनुमान सके हम।।
सूरज की सामर्थ्य, कल्पना होती जैसे।
उसी तरह त्रैलोक्य, नाप हम सकते कैसे।।