खंड-14 / पढ़ें प्रतिदिन कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
पावस में साजन नहीं, कटते हैं दिनरैन।
व्याकुल सजनी रो रही, होकर अति बेचैन।।
होकर अति बेचैन, विरह में नीन्द न आती।
लगता दिवस पहाड़, रात तो अधिक सताती।।
यह पूनम की रात, लगे ज्यों घोर अमावस।
आओ निष्ठुर कन्त, बहुत दुख देती पावस।।
माता की सेवा करो, जिनसे हो उत्पन्न।
जितना संभव हो करो, होओगे सम्पन्न।।
होओगे सम्पन्न, वही है सब तीर्थाटन।
होगा भारी पाप, करे जब माँ भिक्षाटन।
कह “बाबा” कविराय, उसे क्या विश्व सुहाता।
सुखी रहे संतान, सदा यह चाहे माता।।
देता अब कोई नहीं, मुझको आज उधार।
झेलूं अब मैं किसतरह, महगाई की मार।।
महगाई की मार, नहीं अब जीने देगी।
भूखा है परिवार, जान सबकी ले लेगी।।
यह सरकारी तन्त्र, कभी संज्ञान न लेता।।
नहीं बची है आस, मित्र भी ध्यान न देता।।
आओ हे प्रिय डाकिया, दैख रही हूँ राह।
खत भेजूं तो आ सके, पति हैं बेपरवाह।।
पति है बेपरवाह, विरह में याद सताती।
लगता दिवस पहाड़, रात तो अधिक रुलाती।।
मेरा यह संदेश, सजन तक तुम पहुँचाओ।
सजनी का यह पत्र, शीघ्र लेने तुम आओ।।
कोरा काग़ज़ ही बने, आते हैं हम आप।
कोई लिखता पुण्य है, लिखता कोई पाप।।
लिखता कोई पाप, साथ भी उतना जाता।
कोई जाता स्वर्ग, नर्क है कोई पाता।।
करें श्रेष्ठ ही कर्म, यही है मात्र निहोरा।
लिख दें सुन्दर शब्द, मिला है काग़ज़ कोरा।।
आते हैं सब जन्म से, लेकर खाली हाथ।
कर्म सभी अच्छे बुरे, जाते लेकर साथ।।
जाते लेकर साथ, जन्म पुनि वैसा पाते।
जो करते सत्कर्म, स्वर्ग वे निश्चित जाते।।
रंगमंच पर लोग, भूमिका मात्र निभाते।
कोरा काग़ज़ प्राप्त, सभी हैं जग में आते।
बाल्यावस्था से हुई, तुकबन्दी प्रारम्भ।
लिख लेता हर छन्द अब, करूँ नहीं मैं दम्भ।।
करूँ नहीं मैं दम्भ, शारदा है लिखवाती।
मैं रहता निष्काम, वही सबकुछ करवाती।।
रहकर मात्र निमित्त, एक उनपर है आस्था।
लेखन करता नित्य, याद है बाल्यावस्था।।
लेकर वृद्धा टोकरी, जाती करने काम।
युवावृन्द घर के सभी, फरमाते आराम।।
फरमाते आराम, नहीं माँ की सुधि लेते।
रोती माँ बीमार, कष्ट फिर भी सब देते।।
जबतक अन्तिम साँस, मरेगी भी कुछ देकर।
सुखी रहे संतान, आसरा जीती लेकर।।
करने अच्छे कर्म थे, मिला नहीं अवकाश।
अन्त समय पछता रहा, कर पाता मैं काश!
कर पाता मैं काश, नहीं अब शेष जवानी।
अब आया है ध्यान, अधूरी देख कहानी।।
अब मैं हूँ लाचार, चला हूँ मैं अब मरने।
पाकर उत्तम जन्म, लोग आते शुभ करने।।
लेकर मानव जन्म मैं, सोचा होता काश!
तो मेरा होता नहीं, जीवन सत्यानाश।।
जीवन सत्यानाश, कर्म भौतिक कर पाया।
भुला दिया अध्यात्म, लुब्ध करती है माया।।
कृत संकल्पित आज, अगर जा कुछ देकर।
लोग करेंगे याद, सुयश ही जा लेकर।।