खंड-14 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
माना है जीवन कठिन, पर झेलो संघर्ष।
साहस उद्यम से सहज, मिलता है उत्कर्ष।।
मिलता है उत्कर्ष, रात भर जो भी सोता।
उसको है यह ज्ञात, सबेरा निश्चित होता।
कह ‘बाबा’ कविराय, तथ्य यह जिसने जाना।
हरदम जाए जीत, सभी ने लोहा माना।।
रहना है जिसको सदा, बने कूप मंडूक।
उससे बाहर कुछ कहें, तानेगा बन्दूक।।
तानेगा बन्दूक, नहीं कुछ अन्य सुहाता।
बनी हुई जो लीक, उसी पर चक्र घुमाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं कुछ उसको कहना।
अगर चाहते चैन, उचित है चुप ही रहना।
पहले समझो वेदना, फिर पढ़ लेना वेद।
वरना अपनी विद्वता, पर कर लो तुम खेद।।
पर कर लो तुम खेद, कहो वह कैसा ज्ञानी।
समझ न पाए दर्द, करे हरदम मनमानी।
कह ‘बाबा’ कविराय, भले कोई कुछ कह ले।
जो संवेदनशील, वही मानव है पहले।।
चाहोगे यदि शत्रुता, कर उसका उपकार।
क्षुद्र जनों के सामने, मानवता बेकार।।
मानवता बेकार, भुलाकर वह अपनापन।
देगा ऐसी चोट, दिखे सबकुछ धुँधलापन।
कह ‘बाबा’ कविराय, सदा उल्टा पाओगे।
लेगा वह प्रतिशोध, भला जिसका चाहोगे।।
होती वाणी दुष्ट की, कर्कश ज्यों जंजीर।
पायल-सा स्वर संत का, हर ले मन की पीर।।
हर ले मन की पीर, सदा मीठा ही बोलो।
वाणी में क्यों रंक, बोल में मिसरी घोलो।।
कह ‘बाबा’ कविराय, ज्ञान बन जाए मोती।
लोग करे सम्मान, प्रतिष्ठा सब कुछ होती।।
आए अगर घमंड तो, जाकर घूम मसान।
पड़े हुए हैं राख बन, बड़े-बड़े धनवान।।
बड़े-बड़े धनवान, कभी थे वे ताकतवर।
नष्ट हुआ अभिमान, जगत ही जब है नश्वर।।
कह ‘बाबा’ कविराय, संग ले क्या जा पाए।
करो नेक सब कर्म, मनुज बन जब तुम आए।।
रिश्ता जो है खून का, उसे न कर बेकार।
सहोदरों को बाँटकर, मत खींचो दीवार।।
मत खींचो दीवार, सहोदर दुर्लभ होते।
करते पश्चाताप, भूल कर जो हैं खोते।।
कह ‘बाबा’ कविराय, उसे ही मान फरिश्ता।
सुखदुख में दे साथ, निभाता जो है रिश्ता।।
जितनी प्रतिभा है बची, प्रभु पर रख विश्वास।
सृजन करूँ साहित्य का, जबतक अन्तिम साँस।।
जबतक अंतिम साँस, हमेशा पद्य बनाऊँ।
कृष्ण-राम हैं इष्ट, इन्हें नित भजन सुनाऊँ।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं है हिम्मत उतनी।
बन जाए सब श्रेष्ठ, सृजन कर पाऊँ जितनी।।
मैं कहता सन्यास है, एक पलायन कर्म।
कर्मभूमि से भागना, यह कैसा है धर्म।।
यह कैसा है धर्म, कर्म से पिंड छुड़ाना।
सांख्ययोग में ध्यान, मात्र है एक बहाना।
कह ‘बाबा’ कविराय, कर्मयोगी जो करता।
है असली सन्यास,यही सबदिन मैं कहता।।
सारे इन्द्रिय कर्म में, लगा रहे दिनरैन।
सदा कृष्ण की याद में, हृदय रहे बेचैन।।
हृदय रहे बेचैन, जगत है ठगिनी माया।
बिना कृष्ण की भक्ति, उसे है जीत न पाया।
कह ‘बाबा’ कविराय, भटकते सब बेचारे।
जग में रह आसक्त, कीट सम जीते सारे।।