रोती है सौरा नदी, करती है चित्कार।
कर दें कोई नर्क से, मेरा अब उद्धार।।
मेरा अब उद्धार, लाश सब इसमें डाले।
कचरे या मलमूत्र, सहित बहते हैं नाले।।
सहती अत्याचार, धैर्य अब अपना खोती।
संकट में हैं प्राण, सर्वदा रहती रोती।।
कहना क्या है आपसे, सब हैं जब विद्वान।
पत्रकार बनता वही, जो रखता सद्ज्ञान।।
जो रखता सद्ज्ञान, नहीं यह काम सरल है।
रखना पड़ता धैर्य, सुधा सम पेय गरल है।।
सुख दुख भय अपमान, पड़ेगा सबकुछ सहना।
चलें सत्य की राह, मात्र है इतना कहना।।
सहता है दुख-दर्द जो, करता कठिन प्रयास।
पत्रकार वह बन सके, जो करता अभ्यास।।
जो करता अभ्यास, करे जब पत्रकारिता।
नहीं रहे भयभीत, त्याग निज धैर्यधारिता।।
चले सत्य की राह, सत्य ही हरदम कहता।
करता निज कर्त्तव्य, बहुत कुछ वह है सहता।।
किससे क्या कहना मुझे, यह रखता हूँ ध्यान।
मैं क्या बोलूँ आपसे, आप स्वयं विद्वान।।
आप स्वयं विद्वान, आपका काम सिखाना।
चाहे कोई मूढ़, सूर्य को दीप दिखाना।।
हो सम्यक व्यवहार, भेंट हो जब भी जिससे।
बस इतना हो ध्यान, बात करते हैं किससे।।
रहते हों यदि विज्ञजन, उन्नत सभ्य समाज।
मैं क्या बोलूँ फिर वहाँ, आती मुझको लाज।।
आती मुझको लाज, उचित है चुप ही रहना।
पर जब हो अन्याय, नीति कहती मत सहना।।
मानवजन्य स्वभाव, बड़े भी गलती करते।
कह देता सच बात, विज्ञ भी सम्मुख रहते।।
सहती है जब प्रकृति यह, अतिशय अत्याचार।
क्रोधित होकर फिर वही, बन जाती खूंख़ार।।
बन जाती खूंख़ार, राक्षसी फिर बन जाती।
बना रूप विकराल, नाश का मार्ग बनाती।।
लेती है प्रतिशोध, नहीं कुछ मुख से कहती।
हो जाती है क्रुद्ध, कष्ट जब अतिशय सहती।।
होता है अन्याय जब, जाए उसपर ध्यान।
खामोशी अच्छी नहीं, उसका लें संज्ञान।।
उसका लें संज्ञान, त्वरित प्रतिकार करें हम।
अनुचित हो जब तर्क;नहीं स्वीकार करें हम।।
जो रखता है मौन, बाद में वह भी रोता।
रहना मात्र तटस्थ, पाप भारी वह होता।।
मिलते हैं प्रायः हमें, बहुत हठी कुछ लोग।
खामोशी के अस्त्र का, हो तब उचित प्रयोग।।
हो तब उचित प्रयोग, मूर्ख को ज्ञान सिखाना।
हो जाता अभिशाप, दुष्ट को मार्ग दिखाना।।
देखे हैं क्या आप, फूल पत्थर पर खिलते?
ऐसे जिद्दी लोग, हमें हैं प्रायः मिलते।।
वैसे तो कृतियाँ सभी, रखती हैं लालित्य।
संशोधन के बाद ही, बने श्रेष्ठ साहित्य।।
बने श्रेष्ठ साहित्य, जिसे सब लोग पढ़ेंगे।
जब पढ़ते विद्वान, अर्थ गाम्भीर्य गढ़ेंगे।।
ढूंढेंगे सब लोग, सीप में मोती जैसे।
कवि होते सम्मान्य, प्राण जितने प्रिय वैसे।।
सहती है नारी अगर, दुख पीड़ा सन्ताप।
प्रगट नहीं करती कभी, रो लेती चुपचाप।।
रो लेती चुपचाप, किसे वह दर्द कहेगी।
सहती है जब नित्य, और इसबार सहेगी।
दुख दे कोई अन्य, प्रगट वह निश्चित करती।
अपने ही दे कष्ट, इसी कारण वह सहती।।