खंड-20 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
पूँजी लेकर प्यार की, जो चलता दिनरात।
वही सुखी-सम्पन्न है, परम सत्य यह बात।।
परम सत्य यह बात, प्यार बिन जन्म अधूरा।
उसका है सौभाग्य, जिसे मिलता यह पूरा।
कह ‘बाबा’ कविराय, प्यार की जब हो कुंजी।
कभी न खोता धैर्य, धरोहर होती पूँजी।।
कैसे अपने मित्र को, कर पाऊँ मैं तुष्ट।
अगर प्रशंसा भी करूँ, हो जाते वे रुष्ट।।
हो जाते वे रुष्ट, उन्हें कैसे समझाऊँ।
हनुमत-सा दिल खोल, कहें कैसे दिखलाऊँ।
कह ‘बाबा’ कविराय, मत्स्य हो जल बिन जैसे।
मैं भी हूँ बेचैन, मान जाएँ वे कैसे।।
बढ़ती जाती उष्णता, सोचनीय है बात।
आने का संकेत है, अब भीषण उत्पात।।
अब भीषण उत्पात, कहो यह क्यों है होता।
फल होता उत्पन्न, बीज ही जैसा बोता।
कह ‘बाबा’ कविराय, सहो अब मार कुदरती।
सोचो शीघ्र निदान, उष्णता क्यों है बढ़ती।।
रहना था मधुमास को, पर आया है ग्रीष्म।
दृढ़प्रतिज्ञ यह दिख रहा, जैसे कोई भीष्म।।
जैसे कोई भीष्म, नहीं अब यह टालेगा।
बहुत किया बर्दाश्त, जलाकर ही मारेगा।
कह ‘बाबा’ कविराय, हमें है अब दुख सहना।
बढ़ा न उसका क्रोध, अगर है सुख में रहना।।
गरमी का है क्यों भला, ऐसा रूप प्रचंड।
छेड़छाड़ मानव करे, दे उसका ही दंड।।
दे उसका ही दंड, प्रकृति जब है गुस्साती।
देती है संकेत, नराधम लाज न आती?
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं बरतेगी नरमी।
धरकर रूप प्रचंड, और आएगी गरमी।।
थोड़ा सा निश्चित रहे, जीवन में अभिमान।
अधिक झुको तो पीठ को,सब समझे पौदान।।
सब समझे पौदान, नहीं रह भोला होकर।
जग न करे फिर कद्र, पैर से देगा ठोकर।
कह ‘बाबा’ कविराय, दुष्ट को मारो कोड़ा।
बचा रहे सम्मान, अहं रख थोड़ा-थोड़ा।।
दर्पण में सबको दिखे, अपना सुन्दर चित्र।
इसे न कोई देखता, दिखता अगर चरित्र।।
दिखता अगर चरित्र, उसे फिर लाज लगेगी।
होगा त्वरित सुधार, और सद्बुद्धि जगेगी।
कह ‘बाबा’ कविराय, कृष्ण को जीवन अर्पण।
करता दुर्गुण दूर, दिखा जब देता दर्पण।।
होते ही हैं रंग में, कोकिल काग समान।
पर होती आवाज से, दोनों की पहचान।।
दोनों की पहचान, सदा ही गुण से होती।
कोयल करती कूक, कभी न रंग पर रोती।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं वे धीरज खोते।
नहीं देखता रंग, गुणी जो मानव होते।।
अपने तो उत्कृष्ट हैं, सारे रीति-रिवाज।
देख ह्रास क्रमशः यहाँ, चिन्तित सभ्य समाज।।
चिन्तित सभ्य समाज, कहे अति शीघ्र बचा लो।
है वैज्ञानिक तथ्य, यही सद्ज्ञान बना लो।
कह ‘बाबा’ कविराय, तभी हों पूरे सपने।
करो सतत् विश्वास, रीति-रिवाज पर अपने।।
होती है मेरी सदा, उसी समय पहचान।
जिसको मुझसे स्वार्थ है, वह देता सम्मान।।
वह देता सम्मान, काम जबतक हो जाता।
फिर वह जाता भूल, कभी पहचान न पाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, बने वह एक चुनौती।
करे शत्रुता नित्य, भलाई याद न होती।।