भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खंड-22 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

होता है साहित्य ही, जब समाज का अक्ष।
कवि को होना चाहिए, जैसे एक विपक्ष।।
जैसे एक विपक्ष, कार्य देखे सरकारी।
जहाँ दिखेगा दोष, टोकना है लाचारी।।
बोले कविगण सत्य, सुनेंगे सारे श्रोता।
होगा त्वरित सुधार, श्रेष्ठ लेखन वह होता।।

वाचक जब करता रहे, शब्दों की बौछार।
श्रोता हों जब बेअसर, सब कहना बेकार।।
सब कहना बेकार, शब्द जब असर दिखाए।
कम शब्दों में आप, कहें जो भाव जगाए।।
कह ‘बाबा’ कविराय, शब्द बन सकता घातक।
सोच समझकर शब्द, निकाले कोई वाचक।।

मेरा मन लगता नहीं, जब लिखता हूँ गद्य।
हरदम लिखना चाहता, एकमात्र बस पद्य।।
एकमात्र बस पद्य, गद्य है काव्य-कसौटी।
पद्य बिना भी लोग, प्राप्त कर लेते चोटी।।
कविता का ही कीट, बुद्धि में डाले डेरा।
लिखवाता है पद्य, दोष फिर क्या है मेरा।।

मिलते है जब दिल लगा, प्रायः सबको घाव।
पेड़ लगाने से मिले, हरदम ठंडी छाँव।।
हरदम ठंडी छाँव, चाहकर पेड़ लगाएँ।
हरेभरे वन बाग, लगा जग स्वच्छ बनाएँ।।
कह ‘बाबा’ कविशय, पर्वतें आज पिघलते।
पेड़ बढ़ाकर रोक, वृक्ष से फल भी मिलते।।

संचालक बन मंच का, आप रहें गंभीर।
छोटी-छोटी बात पर, मत हों आप अधीर।।
मत हों आप अधीर, धैर्य रख मंच सँभालें।
देखें गुण या दोष, खुशी से फिर समझा लें।।
कह ‘बाबा’ कविराय, आप हैं जैसे पालक।
तालमेल रख आप, बनें असली संचालक।।

होता बंजर खेत में, बीज डालना व्यर्थ।
बाँटें ज्ञान सुयोग्य को, जो समझेगा अर्थ।।
जो समझेगा अर्थ, अन्यथा बकते रहिए।
अंटशंट बकवास, सदा ही सुनते रहिए।
कह ‘बाबा’ कविराय, धैर्य वह अपना खोता।
सात्विक है वह दान, पात्र जब उत्तम होता।।

मुझको अपने देश पर, सचमुच है अब दर्प।
करे नेवला मित्रता, आज साथ है सर्प।।
आज साथ है सर्प, बने हैं अब ये भाई।
खेलेंगे अब खेल, गाय के संग कसाई।।
 कह ‘बाबा’ कविराय, गजब है लगता तुझको।
दुनिया है हैरान, हँसी आती है मुझको।।

कुण्डलियाँ खुद भेजकर, करता हूँ शुरुआत।
ज्ञान दान से ही बढ़े, बाँटूँ जितना ज्ञात।।
बाँटूँ जितना ज्ञात, करें हम जितना खर्चा।
बढ़ जाए भंडार, करें सब इसपर चर्चा।।
कह ‘बाबा’ कविराय, झड़ेंगी तब फुलझड़ियाँ।
आएगा आनन्द, देखकर अब कुण्डलियाँ।।

आत्मविवेचक नम्रता, संयमयुक्त विवेक।
मिलते ऐसे संत हैं, विरले कोई एक।।
विरले कोई एक, मिलें जब कोई हमको।
उनको दें सम्मान, दूर कर दें वे तम को।।
कह ‘बाबा’ कविराय, बनें हम एक निवेदक।
सीखें उनसे ज्ञान, धन्य हैं आत्मविवेचक।।

दिल के रिश्ते देखिए, टूट रहे हैं आज।
होती है बिल्कुल नहीं, इसमें कुछ आवाज।।
इसमें कुछ आवाज, टूटते और बिखरते।
सब रहकर चुपचाप, दुखी हो सबकुछ सहते।।
कह ‘बाबा’ कविराय, बनें हम अगर फरिश्ते।
या रह लें इंसान, न टूटे दिल के रिश्ते।।