खंड-23 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
खोने पर कर ग़म नहीं, वह तो था प्रारब्ध।
बहुतों से कुछ कम नहीं, जितना है उपलब्ध।।
जितना है उपलब्ध, उसी से काम चला लो।
रख थोड़ा संतोष, अतिथि को भी बहला लो।।
एकमात्र आधार, वही हैं श्याम सलोने।
जग का यह ऐश्वर्य, प्राप्त होता है खोने।।
सबसे पहले त्याग दें, कर्तापन अभिमान।
रहे समर्पण भाव तब, सब करते भगवान।।
सब करते भगवान, वही हैं केवल कर्ता।
उनको दें सब सौंप, जगत के हैं दुख हर्ता।।
कह ‘बाबा’ कविराय, सृष्टि बन पायी जबसे।
सब पर रखते ध्यान, प्रेम भी करते सबसे।।
भावुकता का मंत्र हो, रहे शब्द भंडार।
फिर कर सकते आप हैं, कविता का शृंगार।।
कविता का शृंगार, डाल शब्दों की माला।
भरकर सुन्दर भाव, बना दें काव्य निराला।।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं हो अति आकुलता।
बना रहे जब धैर्य, समाहित हो भावुकता।।
होते मात्र विवेक से, स्वप्न सभी साकार।
जैसे अंधे के लिए, दर्पण है बेकार।।
दर्पण है बेकार, सदा हम ज्ञान बढ़ाएँ।
फिर कर विद्या दान, ज्ञान का पाठ पढ़ाएँ।।
जो न बाँटते ज्ञान, पाप की गठरी ढोते।।
बन पृथ्वी का भार, पढ़े भी मूरख होते।।
मात्रा गिनना सीख लें, सीखें छंद विधान।
फिर तो अति अभ्यास से, आएगा खुद ज्ञान।।
आएगा खुद ज्ञान, कृपा होगी गुरुवर की।
फिर होंगे निष्णात, जयति जय हो रघुवर की।।
कह ‘बाबा’ कविराय, सफल यह होगी यात्रा।
सबसे पहले आप, सीख लें गिनना मात्रा।।
खुलकर हम करते घृणा, छिपकर करते प्यार।
अंतर्मन से सोचिए, है क्या उचित विचार।।
है क्या उचित विचार, यही है क्या मानवता।
ऊपर दिखते सभ्य, हृदय में है दानवता।।
कह ‘बाबा’ कविराय, सीख लें रहना मिलकर।
अपनों से हर बात, हमेशा कहिए खुलकर।।
कहिए जग के मंच को, भोले का परिवार।
करना है सबको यहाँ, अब समुचित व्यवहार।।
अब समुचित व्यवहार, परस्पर मिलकर रहना।
सीखेंगें प्रत्येक, बड़ों का आदर करना।।
कह ‘बाबा’ कविराय, सीखने में कुछ सहिए।
हरदम मन की बात, प्रगटतः सबसे कहिए।।
कुण्डलियाँ का भार यह, मुझको है स्वीकार।
जितना संभव हो करूँ, देकर प्रभु पर भार।।
देकर प्रभु पर भार, रहूँगा एक बहाना।
मैं खुद हूँ अल्पज्ञ, ज्ञान है वृहद खजाना।।
कह ‘बाबा’ कविराय, फूल से पहले कलियाँ।
उसी तरह हर ओर, निकलआए कुण्डलियाँ।।
नलिनी दल पर बून्द-सा, जीवन है अति अल्प।
रोग शोक के शमन हित, प्रभु की भक्ति विकल्प।।
प्रभु की भक्ति विकल्प, कर्म हम अच्छा कर लें।
करें नहीं हम दंभ, सरलता का दम भर लें।।
कह ‘बाबा’ कविराय, जगत है माया ठगिनी।
गुण का हो विस्तार, पंक से बनकर नलिनी।।
सच्चाई जाने बिना, करना शब्द-प्रहार।
सुन कहते सब विज्ञजन, कैसा घृणित विचार।।
कैसा घृणित विचार, लोग रहते हैं पाले।
ऊपर रंग सफेद, हृदय से होते काले।।
कह ‘बाबा’ कविराय, शर्म को कह अच्छाई।
पाले रहते दंभ, आज की है सच्चाई।।