खंड-25 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
कंचन चंदन ईख-सा, निज गुण को मत त्याग।
गुणवत्ता बढ़ती चले, भले जला दे आग।।
भले जला दे आग, गुणों को और उभारे।
आए लाखों कष्ट, भले सुरधाम सिधारे।।
कह ‘बाबा’ कविराय, उसी का होता वंदन।
सहने पर ही ताप, हार बन जाता कंचन।।
होता है कवि के लिए, लेखन ही आधार।
वरना उनकी ज़िन्दगी, रह जाती बेकार।।
रह जाती बेकार, लेखनी जबतक चलती।
तबतक रहता जोश, अन्यथा दुनियाँ खलती।।
कह ‘बाबा’ कविराय, बीज जो मन में बोता।
कविता का ले रूप, वही फिर पौधा होता।।
जबतक चलती लेखनी, कवि जीवन है धन्य।
इसके जैसा मित्र भी, कहाँ मिलेगा अन्य।।
कहाँ मिलेगा अन्य, रहे कवि जन्म अधूरा।
करता लेखन धर्म, हमारा जीवन पूरा।
कह ‘बाबा’ कविराय, रहूँगा ज़िन्दा तबतक।
लिख पाऊँ हर रोज, साँस है बाँकी जबतक।।
सज्जन का तो संग है, खुद ही तीर्थस्थान।
देता है प्रत्यक्ष फल, मिलता है सद्ज्ञान।।
मिलता है सद्ज्ञान, त्वरित अज्ञान मिटाता।
सदा श्रेष्ठ विद्वान, ज्ञान के दीप जलाता।।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं होता दुर्गंजन।
अवसर को मत त्याग, मिले जब कोई सज्जन।।
करता है जो साधना, वह पा लेता लक्ष्य।
उसकी प्रतिभा अन्यथा, बने अन्य का भक्ष्य।।
बने अन्य का भक्ष्य, करे वह मात्र गुलामी।
उसका श्रम बेकार, मिले केवल बदनामी।।
कह ‘बाबा’ कविराय, अकारण ही वह मरता।
मरने के भी बाद, घृणा उससे जग करता।।
करता हूँ मैं नमन माँ, मातृदिवस पर आज।
मैं तुम्हारा पुत्र हूँ, इसपर मुझको नाज।।
इसपर मुझको नाज, गर्व से नाम पुकारूँ।
तुमको करता याद, कभी सुरधाम सिधारुँ।।
कह ‘बाबा’ कविराय, व्याज ऋण का नित बढ़ता।
कैसे होऊँ उऋण, यत्न मैं प्रतिपल करता।।
इच्छित फल उसको मिले, जो होता है योग्य।
सभी कर्म वह कर सके, रखता जो आरोग्य।।
रखता जो आरोग्य, पूर्ण कर लेता सपना।
रखकर सद्व्यवहार, बनाता सबको अपना।।
कह ‘बाबा’ कविराय, प्रतिष्ठा होती संचित।
पा लेता वह लक्ष्य, रहे जो मन में इच्छित।।
आता है जब चाह लें, सुन्दर सुखद वसंत।
मन उमंग से जब भरे, हो विपदा का अंत।।
हो विपदा का अंत, हृदय में खुशियाँ छातीं।
निज पतियों के संग, पत्नियाँ मौज मनातीं।।
कह ‘बाबा’ कविराय, वही आनन्द मनाता।
संघर्षों के बीच, जिसे खुश रहना आता।।
अपना ही यह बाग है, भ्रम था यह बेकार।
आँधी ने बतला दिया, है उसका अधिकार।।
है उसका अधिकार, नियति का चक्र यही है।
जग है क्षणभंगूर, बात यह मात्र सही है।
कह ‘बाबा’ कविराय, जगत को जानो सपना।
सब जाते हैं छूट, कृष्ण ही केवल अपना।।
जबतक जीवन शेष है, और बची है साँस।
सेवा कर लूँ देश की, है इतना विश्वास।।
है इतना विश्वास, देश का मान बढ़ाऊँ।
देशभक्ति के गीत, बनाकर रोज सुनाऊँ।।
कह ‘बाबा’ कविराय, कष्ट सह लूँगा तबतक।
होगा सतत् प्रयास, देश विकसित हो जबतक।।