खंड-26 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
मेरा भारत देश है, दुनियाँ में सर्वाेच्च।
विश्वप्रेम की भावना, ऊँची है हर सोच।।
ऊँची है हर सोच, विश्व को ज्ञान सिखाता।
भटक रहा जो देश, उसे भी मार्ग दिखाता।।
कह ‘बाबा’ कविराय, श्रेष्ठता का है डेरा।
सचमुच बहुत महान, देश है भारत मेरा।।
माना अपना देश था, सदियों एक गुलाम।
तब भी जपता विश्व था, भारत का ही नाम।।
भारत का ही नाम, मिली है अब आजादी।
होगा शीघ्र विकास, दूर हो सब बर्बादी।।
कह ‘बाबा’ कविराय, यही सबने व्रत ठाना।
देख सतत् उत्थान, विश्व ने लोहा माना।।
मेरे लेखन का अभी, है प्रारम्भिक दौर।
प्रभु चाहें तो लिख सकूँ, क्रमशः बढ़ियाँ और।।
क्रमशः बढ़ियाँ और, पढ़ें सब झूम उठेंगे।
जब हो पुस्तक प्राप्त, उठाकर चूम उठेंगे।।
कह ‘बाबा’ कविराय, लिखूँ मैं शाम सबेरे।
अनुपम लेखन कार्य, काश! चल पाते मेरे।।
बेटी आद्याशक्ति है, जिससे चलती सृष्टि।
हँसती है बेटी जहाँ, वहाँ स्नेह की वृष्टि।।
वहाँ स्नेह की वृष्टि, अन्यथा दुर्दिन आता।
जीवन का आनन्द, नहीं वह है ले पाता।।
कह ‘बाबा’ कविराय, सम्पदा रहती लेटी।
होता जीवन धन्य, अगर हो घर में बेटी।।
होती है बेटी सदा, निज कुल का शृंगार।
लक्ष्मी प्रमुदित हो वहाँ, करती वृद्धि अपार।।
करती वृद्धि अपार, सदा ही खुशियाँ रहतीं।
सब सुख होते क्षीण, बेटियाँ जब दुख सहतीं।।
कह ‘बाबा’ कविराय, कभी वह धैर्यं न खोती।
पाकर ही सौभाग्य, किसी को बेटी होती।।
होती है यह उम्र ही, बस अमूल्य सौगात।
होती व्यर्थ प्रमाद में, करके जग की बात।।
करके जग की बात, इसे जो व्यर्थ गँवाता।
अधम योनि में जन्म, लिए फिर दुर्दिन पाता।।
कह ‘बाबा’ कविराय, सजा लो जीवन मोती।
रहते अगर सचेत, वृथा यह योनि न होती।।
जान रहा हूँ मैं सदा, अपनी क्या औकात।
जितना संभव हो सके, करता उतनी बात।।
करता उतनी बात, जिसे मैं कर दिखलाता।
कर्मयोग का ज्ञान, शास्त्र भी है सिखलाता।।
कह ‘बाबा’ कविराय, मृत्यु को सच मान रहा।
नश्वर है संसार, तत्व यह मैं जान रहा।।
रखता हूँ हरगिज नहीं, अतिशय धन की चाह।
हो पाए परिवार का, बस समुचित निर्वाह।।
बस समुचित निर्वाह, अतिथि सेवा हो पाए।
कर पाऊँ कुछ दान, भूख से पीड़ित आए।।
कह ‘बाबा’ कविराय, सदा संतोषी रहता।
हो मानव कल्याण, चाह बस इतनी रखता।।
होते हैं क्या भिन्न ये, ईश्वर और फकीर?
इनको सम लें जान तो, बदलेगी तकदीर।।
बदलेगी तकदीर, श्रेष्ठता में है प्रभुता।
हैं वे असली संत, रखें जो हरदम लघुता।।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं जो धीरज खोते।
रखते हैं सम भाव, वही तो ईश्वर होते।।
ताड़ित पितु से पुत्र का, गुरु से शिक्षित शिष्य।
तपा पिटाया स्वर्ण का, होता सुखद भविष्य।।
होता सुखद भविष्य, करे जो प्रबल साधना।
बन जाता वह श्रेष्ठ, जगेगी श्रेष्ठ भावना।।
कह ‘बाबा’ कविराय, कर्म उत्तम संचालित।
संभव उससे होय, ज्ञानहित जो हो ताड़ित।।