खंड-27 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा

जाती पलपल ज़िन्दगी, मुट्ठी में ज्यों रेत।
देखो बाट प्रयाण का, हो जा शीघ्र सचेत।।
हो जा शीघ्र सचेत, ज़िन्दगी होती थोड़ी।
सबकुछ जाए छूट, सम्पदा जिसने जोड़ी।।
कह ‘बाबा’ कविराय, सुयश ही दुनिया गाती।
अंतिम सबके संग, कीर्ति ही हरदम जाती।।

जब-जब धरती ने किया, प्रभु से करुण पुकार।
हर युग के अनुरूप ही, हुआ राम अवतार।।
हुआ राम अवतार, पाप का नाश किया है।
प्रभु ने आ हरबार, दुष्ट को दण्ड दिया है।
कह ‘बाबा’ कविराय, राम आते हैं तब-तब।
पाकर अतिशय त्रास, भक्तजन रोते जब-जब।।

जगती है जब कामना, आता है उत्साह।
लक्ष्य साध आगे बढ़ें, रहकर बेपरवाह।।
रहकर बेपरवाह, राह खुद दिखती जाए।
बढ़ते जाएँ आप, मंजिलें निकट बुलाए।
कह ‘बाबा’ कविराय, रात जब ढलने लगती।
आए सुखद प्रभात, भावना सब में जगती।।

मेरे तो आदर्श हैं, जग में केवल आप।
कभी आपको कष्ट दूँ, यह तो होगा पाप।।
यह तो होगा पाप, नहीं है ऐसी मंशा।
हो सकती है भूल, प्रबल है यह आशंका।।
कह ‘बाबा’ कविराय, करूँ नित ध्यान सबेरे।
हो जाए कुछ भूल, क्षमा कर दें प्रभु मेरे।।

आयोजन हो इस तरह, जो लिख दे इतिहास।
अमर कीर्ति जग में बढ़े, रख इतना विश्वास।।
रख इतना विश्वास, अन्य क्या कर पाएगा।
साहित्यिक उत्थान, देख जग गुण गाएगा।।
कह ‘बाबा’ कविराय, रहे जब श्रेष्ठ प्रयोजन।
कर लें दृढ़ संकल्प, सफल हो हर आयोजन।।

कुण्डलियाँ कुछ भेजकर, करता हूँ शुरुआत।
ज्ञान दान से ही बढ़े, बाँटूँ जितना ज्ञात।।
बाँटूँ जितना ज्ञात, करें हम जितना खर्चा।
बढ़ जाए भंडार, करें सब इसपर चर्चा।।
कह ‘बाबा’ कविराय, झड़ेंगी तब फुलझड़ियाँ।
आएगा आनन्द, देखकर अब कुण्डलियाँ।।

आती हैं कठिनाइयाँ, मैं लेता हूँ चूम।
स्वागत करता हूँ सदा, मन जाता है झूम।।
मन जाता है झूम, कटेगी शाम सुनहरी।
क्यों हो पश्चाताप, संगिनी यह जो ठहरी।।
कह ‘बाबा’ कविराय, इसे कुछ लाज न आती।
एकमात्र यह संग, निभाने प्रायः आती।।

करते हैं जो सर्वदा, दूजे का उपकार।
दुख विपदा हरगिज नहीं, आते उनके द्वार।।
आते उनके द्वार, सदा खुशियाँ ही मिलतीं।
होती जयजयकार, प्रेम की कलियाँ खिलतीं।।
कह ‘बाबा’ कविराय, सभी के दुख वे हरते।
तन मन धन से नित्य, दीन की सेवा करते।।

जो करता है साधना, और कठिन अभ्यास।
फिर सारी उपलब्धियाँ, आतीं उसके पास।।
आतीं उसके पास, सफलता बनकर दासी।
घूमे चारों ओर, भागती दूर उदासी।।
कोसे अपना भाग्य, परिश्रम से जो डरता।
पा लेता सर्वस्व, साधना है जो करता।।

मिलती जब अध्यक्षता, हो जाता हूँ धन्य।
मैं तो चाहूँ सीखना, विद्वानों से अन्य।।
विद्वानों से अन्य, बाँटते ज्ञान सुधा जो।
हर लेते अज्ञान, तृप्त कर ज्ञान-क्षुधा को।।
कह ‘बाबा’ कविराय, काव्य की कलिका खिलती।
करते रहते दान, यहाँ बस विद्या मिलती।।

होता जब पूरा नहीं, करें साधना स्वल्प।
फिर तो नित अभ्यास से, मिलते नित्य विकल्प।।
मिलते नित्य विकल्प, साधना हो नित जारी।
सीखें गूढ़ रहस्य, विज्ञ से रखकर यारी।।
लग पाता जब नित्य, ज्ञान सागर में गोता।
उस साधक से बोल, नहीं क्या संभव होता।।

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.