खंड-30 / पढ़ें प्रतिदिन कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
जब भी जीवन में मिले, दुख का पारावार।
धैर्य रखो उद्यम करो, कभी न मानो हार।।
कभी न मानो हार, समय थोड़ा लग सकता।
हो सकता है यार, सुप्त पौरुष जग सकता।।
पा लोगे उत्कर्ष, लोग टोकेंगे तब भी।
साहस को मत त्याग, आपदा आए जब भी।।
साजन करवा-चौथ का, दिन आया है आज।
आप बसे परदेश में, मुझको आती लाज।।
मुझको आती लाज, सखी हर मुझको टोके।
करती है उपहास, कौन उसको अब रोके।।
मेरा मन उद्विग्न, जानकर आएँ राजन।
प्रियतम बिन त्यौहार, सफल कैसे हो साजन।।
नारी करवा-चौथ में, करे चन्द्र का ध्यान।
अचल रहे अहिवात का, माँग रही वरदान।।
माँग रही वरदान, नियम से व्रत में रहती।
दिनभर का उपवास, ग्रहण जल भी नहि करती।।
पति की बढ़ती आयु, करे जो व्रत यह भारी।
होता अतिशय कष्ट, सहन करती है नारी।।
सुनता हूँ मैं रातदिन, उसकी ही फटकार।
कर्ज़दार मैं हूँ बना, बीबी साहूकार।
बीबी साहूकार, डाँट ऐसी है मिलती।
हँसता पूरा गाँव, झोपड़ी मेरी हिलती।।
अपना यह दुर्भाग्य, जानकर सिर हूँ धुनता।
उतर रहा ऋण भार, सोचकर डाँटें सुनता।।
खाया पिछले जन्म में, शायद खूब उधार।
कर्ज़दार मैं आज हूँ, बीबी साहूकार।।
बीबी साहूकार, रुलाती दिन भर रहती।
दे बेलन की मार, सूद है सह लो कहती।।
श्रापित जीवन आज, भाग्य ऐसा क्यों पाया।
मुझको है धिक्कार, कर्ज़ इसका क्यों खाया।।
दीप जलाएँ नित्य ही, मिलने पर अवकाश।
ज्योति जले जब ज्ञान की, तब हो दिव्य प्रकाश।
तब हो दिव्य प्रकाश, दिलाएँ सबको शिक्षा।
बाँटें प्रतिदिन ज्ञान, योग्य से लेकर दीक्षा।।
जहाँ अशिक्षित लोग, गाँव में उनके जाएँ।
देकर शिक्षा दान, ज्ञान का दीप जलाएँ।।
आती शुभ दीपावली, दीप जलाते लोग।
एक वर्ष के बाद ही, आता यह शुभ योग।।
आता यह शुभ योग, क्षणिक द्योतित जग होता।
जले ज्ञान का दीप, शुभ्र ज्योतित मग होता।
दिव्य ज्ञान की ज्योति, सदा सबको है भाती।
रखता है जो पास, प्रतिष्ठा दौड़ी आती।।
जिसदिन होगी लेखनी, मेरी बन्धु परास्त।
समझें मेरे हो गया, जीवन का सूर्यास्त।।
जीवन का सूर्यास्त, सतत रचना करता हूँ।
मिलते जो असहाय, सदा साहस भरता हूँ।।
साहित्यिक गति बन्द, मरण होगा फिर उसदिन।
अथवा मुझको लोग, छोड़ दें पढ़ना जिसदिन।।
आत्मा तो मरती नहीं, होती नहीं परास्त।।
होता जीर्ण शरीर के, जीवन का सूर्यास्त।।
जीवन का सूर्यास्त, मनुज जो श्रेष्ठ करेगा।
अमर कीर्ति से लोग, धरा पर अमर रहेगा।।
जो करता सत्कर्म, उसे चाहे परमात्मा।
चिर शाश्वत अक्षुण्ण, सदा होती है आत्मा।।
मिलते कुछ हँसते हुए, शेष दुखी ही लोग।
भव-पीड़ा अति दैन्य से, भोग रहे दुख रोग।।
भोग रहे दुख रोग, देख मैं विह्वल होता।
छन्दबद्ध रच काव्य, भाव हितकर संजोता।।
भरता जोश उमंग, पुष्प मरुथल में खिलते।
पाकर काव्यानन्द, मुझे वे प्रमुदित मिलते।।
कुण्डलियाँ होतीं सदा, सबसे उत्तम छन्द।
पढ़ने पर इनसे मिले, सबको परमानन्द।।
सबको परमानन्द, ज्ञानवर्धन हो जाता।
छः पद निर्मित छन्द, भाव अनुपम दे पाता।।
दिव्य काव्य सौन्दर्य, बाग में ज्यों हों कलियाँ।
हो जाता मन मुग्ध, पढ़ें प्रतिदिन कुण्डलियाँ।।
सागर-मन्थन से हुआ, धनवन्तरि अवतार।
हाथ कलश धारण किये, ब्रह्म रूप साकार।।
ब्रह्म रूप साकार, आज है इनकी पूजा।
ऐसा पावन पर्व, नहीं है कोई दूजा।।
सर्वमान्य हैं देव, यही हैं नटवर नागर।
देते ये धन धान्य, ज्ञान के अद्भुत सागर।।
आया है धनवन्तरी, का यह पावन पर्व।
भारतवासी हमसभी, करते हैं अति गर्व।।
करते हैं अति गर्व, इसी से धन बढ़ता है।
जो करता है ध्यान, शिखर पर वह चढ़ता हैं।।
रखकर श्रद्धा भाव, सभी ने सबकुछ पाया।
देने धन ऐश्वर्य, पर्व यह पावन आया।।