खंड-4 / पढ़ें प्रतिदिन कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
हरदम है मन में बसी, कविताओं से प्रीत।
चाहे कोई छंद हों, दोहे ग़ज़लें गीत।।
दोहे ग़ज़लें गीत, बनाकर पहले गाता।
कुण्डलियों में ढाल, उसे फिर नित्य सुनाता।।
लिखकर सुन्दर छंद, हृदय कहता है बमबम।
दें भोले आशीष, छंद लिख पाता हरदम।।
रक्षाबंधन देश में, है ऐसा त्योहार।
भाई बहनों का बढ़े, और अधिक ही प्यार।।
और अधिक ही प्यार, स्नेह का सूचक धागा।
भाई का सौभाग्य, नहीं तो जान अभागा।।
बहना दे आशीष, लगाती रोली चंदन।
बहुत श्रेष्ठ है पर्व, हमारा रक्षाबंधन।।
भारत में हम जन्म ले, करते हैं सब गर्व।
यहाँ मनाते हैं सभी, रक्षाबंधन पर्व।।
रक्षाबंधन पर्व, कलाई पर हर बहना।
जब भाई को बाँध, स्नेह का पाती गहना।
रक्षा का दे भार, कहे बन योग्य महारत।
ऐसा सुन्दर देश, हमारा अद्भुत भारत।।
बहना भाई को यही, देती आशीर्वाद।
मेरी भी रक्षा करो, रहकर खुश आबाद।।
रहकर खुश आबाद, हाथ में राखी देकर।
जाती है ससुराल, वचन वह उससे लेकर।।
देना है उपहार, मान फिर मेरा कहना।
हर नारी को नित्य, मानना माता बहना।।
रखता हूँ हरगिज नहीं, अतिशय धन की चाह।
हो पाए परिवार का, बस समुचित निर्वाह।।
बस समुचित निर्वाह, अतिथि सेवा हो पाए।
कर पा कुछ दान, भूख से पीड़ित आए।।
कह “बाबा” कविराय, सदा संतोषी रहता।
हो मानव कल्याण, चाह बस इतनी रखता।।
पावस के प्रारम्भ से, कोयल रहती मौन।
मेढ़क जब बकने लगे, उसे सुनेगा कौन।।
उसे सुनेगा कौन, जहाँ सब बकबक करते।
हालत हो विपरीत, विज्ञजन चुप ही रहते।।
अर्द्ध ज्ञान से युक्त, काक को कह दे सारस।
पिक को प्रिय मधुमास, मेढ़कों को प्रिय पावस।।
उगता सूरज नित्य ही, अंधकार के बाद।
दुख से पुनि आगे बढ़ो, यही दिलाता याद।।
यही दिलाता याद, नहीं किञ्चित् घबड़ाओ।
दुख का होता अंत, भाव यह मन में लाओ।।
किए रात्रि विश्राम, सुबह हर प्राणी जगता।
त्यागो मत उत्साह,, सूर्य यह कहने उगता।।
बढ़ता है जब-जब यहाँ, अतिशय पापाचार।
हर युग के अनुरूप ही, हुआ कृष्ण अवतार।।
हुआ कृष्ण अवतार, पाप का नाश किया है।
भक्तों को दे त्राण, दुष्ट को दंड दिया है।।
गीता सा सद्ज्ञान, मिला तो जग है पढ़ता।
आते हैं भगवान, पाप जब अतिशय बढ़ता।।
गीता में तो है भरा, तत्वज्ञान का सार।
जिससे होता है सुलभ, नर तन का उद्धार।।
नर तन का उद्धार, पार्थ थे मात्र बहाना।
चाह रहे थे कृष्ण, जगत को भिज्ञ कराना।।
त्राहि-त्राहि सर्वत्र, धरा थी जब भयभीता।
देने आये कृष्ण, अलौकिक अनुपम गीता।
सज्जन का तो संग है, खुद ही तीर्थस्थान।
देता है प्रत्यक्ष फल, मिलता है सद्ज्ञान।।
मिलता है सद्ज्ञान, त्वरित अज्ञान मिटाता।
सदा श्रेष्ठ विद्वान, ज्ञान के दीप जलाता।।
कह “बाबा” कविराय, नहीं होता दुर्गंजन।
अवसर को मत त्याग, मिले जब कोई सज्जन।।