खंड-7 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
ज्ञानी उसको जानिए, तथा श्रेष्ठ विद्वान।
करे विद्वता पर नहीं, अपने आप बखान।।
अपनेआप बखान, समझ लो ज्ञान नहीं है।
लोग करे उपहास, उसे यह भान नहीं है।
कह ‘बाबा’ कविराय, लाख हो पूजक ध्यानी।
आत्मप्रशंसक लोग, नहीं हो सकते ज्ञानी।।
मेढ़क नाचे सामने, चुप बैठा है सर्प।
समय बड़ा विपरीत है, मेढ़क को भी दर्प।।
मेढ़क को भी दर्प,कहाँ से साहस आया।
ठोक रहा है ताल, नाच हुड़दंग मचाया।
कह ‘बाबा’ कविराय, कौन है उसका प्रेरक।
चिढ़ा रहा है आज, सर्प चुप नाचे मेढ़क।।
मानव बनता जा रहा, जैसे एक मशीन।
इस तकनीकी दौर में, सब संवेदनहीन।।
सब संवेदनहीन, चाहता केवल पैसा।
लोभी कामी क्रूर, नहीं बन उसके जैसा।
कह ‘बाबा’ कविराय, लगे वह बिल्कुल दानव।
दयाभाव से हीन, कहो वह कैसा मानव।।
उतना मत विश्वास कर, जितना उजला वस्त्र।
हो सकता है हो छिपा, भीतर उसके अस्त्र।।
भीतर उसके अस्त्र, रहे वह उतना काला।
होगा पश्चाताप, बना उसको रखवाला।।
कह ‘बाबा’ कविराय, दाँत हाथी के जितना।
हो सकता विपरीत, दिखे जो सुन्दर उतना।।
पाकर जग से प्रेरणा, लिखता कविता गीत।
उसे सुनाता हूँ सदा, जिसे पद्य से प्रीत।।
जिसे पद्य से प्रीत, काव्यरस को जो जाने।
उसे सुनाना व्यर्थ, हृदय से कपट सयाने।
कह ‘बाबा’ कविराय, कहो क्या होगा जाकर।
श्रोता हो रसहीन, मंच भी वैसा पाकर।।
जो रखता इस जगत में, कर्त्तापन अभिमान।
पाप-पुण्य का फल सदा, उसको दे भगवान।।
उसको दे भगवान, वही है सुख-दुख पाता।
सदा कर्म अनुरूप,योनियों में वह जाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं फिर वह है फँसता।
त्याग सकल अभिमान, समर्पण है जो रखता।।
ज्यादा बकझक देखकर, कर लें धारण मौन।
अधिक कुतर्की हो जहाँ, वहाँ सुनेगा कौन।।
वहाँ सुनेगा कौन, भला है चुप ही रहना।
करें तुरत प्रस्थान, नहीं तो दुख है सहना।
कह ‘बाबा’ कविराय, लड़े मंत्री से प्यादा।
देखें बस चुपचाप, अगर बकझक हो ज्यादा।।
पहली रोटी गाय को, देनी है दिनरात।
अंतिम रोटी श्वान को, यह समृद्धि की बात।।
यह समृद्धि की बात, सभी के अंश खिला दो।
याचक आए पास, उसे भी भाग दिला दो।
कह ‘बाबा’ कविराय, बात जो मैंने कह ली।
इसे रखो तुम याद, गाँठ जीवन की पहली।।
अपने दमखम से सदा, सिंह बने वनराज।
प्रतिभाशाली को मिले, निज गुण पर ही ताज।।
निज गुण पर ही ताज, सहज वह सबकुछ पाता।
जो होता गुणवान, वही सबको है भाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, सजाकर अपने सपने।
पा लेता वह लक्ष्य, प्रशंसित गुण से अपने।।
ईश्वर के ही रूप में, होते हैं माँ-बाप।
ध्यान रहे देना नहीं, इन्हें कभी संताप।।
इन्हें कभी संताप, अन्यथा पाप लगेगा।
जो है एक कपूत, सदा वह कष्ट सहेगा।
कह ‘बाबा’ कविराय, शेष यह जग है नश्वर।
मातु-पिता हैं पूज्य, मात्र हैं वे ही ईश्वर।।