भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खजुराहो और फायर / रमेश नीलकमल
Kavita Kosh से
फिलवक्त मैं फायर की नहीं
आग के बारे में सोच रहा हूँ
जो आग-सी यातना के साथ
मेरे भीतर लपलपा रही है
बाजार के आगोश में
हो रहे हैं हमसब कैद
रिश्तों में लग रही है आग
मानवीय गुणों की जल रही है होली
जंगल-जंगल हो गया है
सारा देश
सारी धरती
तब खजुराहो के मंदिरों में
गूंजती फायर-फायर की आवाज
बेतुकी है।
अच्छा हो
हम बेतुकी बातों पर
ध्यान देना बन्द कर दें
अनर्गल बहसों में न उलझें
केवल याद रखें
‘आग’
जो हमारे-आपके भीतर
लपलपा रही है
अगर हम चूके
उसे सँभालने में
अपने भले के लिए नहीं किया
उसका इस्तेमाल
तो ‘फायर’ भले बचे
आग नहीं बचेगी
हमारी-आपकी
पहचान के लिए भी।