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खड़ा मक़्तल में मेरी राह तकता था मेरा क़ातिल / राजेन्द्र स्वर्णकार
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खड़ा मक़्तल में मेरी राह तकता था मेरा क़ातिल
सुकूं था मेरी सूरत पर , धड़कता था उसी का दिल
बचाना तितलियों कलियों परिंदों को मुसीबत से
सभी मा'सूम होते हैं हिफ़ाज़त - र ह् म के क़ाबिल
पता है ; क्यों बुझाना चाहता तूफ़ां चराग़ों को
हुई लेकिन हवा क्यों साज़िशों में बेवजह शामिल
मैं अपनी मौज में रहता हूं बेशक इक ग़ज़ाला ज्यूं
दबोचे कोई हमला'वर नहीं इतना भी मैं गाफ़िल
न लावारिस समझ कर हाथ गर्दन पर मेरी रखना
सितारा हूं , अगर टूटा , …बनूंगा मैं महे - कामिल
ग़ज़ल से जो तअल्लुक पूछते मेरा ; ज़रा सुनलें
समंदर भी मेरा , कश्ती मेरी , ये ही मेरा साहिल
कशिश है ज़िंदगी में जब तलक दौरे - सफ़र जारी
हसीं ख़्वाबों का क्या होगा , मिली राजेन्द्र गर मंज़िल