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खड़िये के निशान में / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

ऊपर आकाश प्राणान्तक पीड़ा में तड़प रहा है

रास्ते के मोड़ पर ट्रैफ़िक पुलिसमैन खड़ा,
इसे, उसे...और किसी को दिखा रहा है हाथ।

इस्स!
लो, उसने फूँक दिया सिंगा
डोलती रहती है, दिन-दोपहर-चौपहर उसकी भारी-भरकम फतुही
लोहे की रेलिंग के पीछे
मोतियाबिन्द वाली आँखों पर चश्मा चढ़ाये
अब इस चौथेपन में हैरान और बदहवास
हथेलियाँ बाँचनेवाला
वह बूढ़ा ज्योतिषी।

फुटपाथ से अभी भी खड़िये का निशान मिटा नहीं

उसी जगह आसन जमा बैठ जाता है वह
और घिसता रहता है खड़िया
जो कुछ है पुराना-उसे नया बनाता रहता है
पता नहीं कहाँ का एक पंचांग बिछाकर।

फुटपाथ पर पड़े खड़िये के निशान
बड़े ही अजीब दिखते हैं।
जन्म मृत्यु प्रेम बुढ़ापा बचपन और जवानी
भूत और भविष्य सबकुछ।
धत् तेरे की!
मन को क्या समझाऊँ
ख़ाक!

जूते की कील से तकलीफ़ तो ज़रूर हो रही है
देख-सुनकर एक-एक कर, पाँव आगे बढ़ाता हूँ
बस अब थोड़ा-सा रास्ता पार कर लेने पर ही,
पूरा हो जाएगा अभ्यास।

घूम-फिरकर ही पता चलेगा
कौन-सा नया खिलौना आ गया है।
अरे, ज़रा देखूँ तो सही!
इसे थपकते ही निकलती है मीठी आवाज़
यह बज भी रही है...रुन झुन...
अरे वाह...वाह...वाह, शाब्बाश!

इस बार अपने कर्ता-धर्ता के जन्मदिन पर
उपहार में यही खिलौना दूँगा

दूर से ही सुन रहा मैं भाग्य-चक्र की घर्र...घर्र...
भीड़ चाहे जितनी भी हो, पास आने पर लटक जाऊँगा

सड़क की थोथी ज़ुबान न जाने क्या बुदबुदा रही है
पता नहीं, लेकिन कोई जाप रहा है कोई मन्तर।