भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खड़ी हैं स्त्रियां / चिन्तामणि जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहाड़ जांच रहा है
अपनों की जिजीविषा
परख रहा है
अपने से अपनत्व
बदल रहा है रंग
दरक रहा है
धधक रहा है
बुला रहा है
तबाही के बादलों को
घटा रहा है
अपने सीढ़ीनुमा खेतों की उर्वरा
सुखा रहा है
फलदार पेड़ों की प्रजातियां
भेज रहा है
जंगलों से जानवरों के झुंड
आबादी में
पुरुष हार रहा है
भाग रहा है
लेकिन अभी भी
फाड़ रही हैं
जंगली भालू के जबड़े को
अपने होंसले-हंसिये से
दिखती हैं
भीमल, खड़क, बांज के पेड़ों पर
धान, मड़वा, चींणा के खेतों में
स्त्रियां
स्त्रियां
अभी भी जातीं हैं समूह में
लाती हैं-चारा बटोर कर
अपने डंगरों के लिए
कांठों की जिबाली और
चढ़ती उतरती ढलानों पर जिन्दा
जंगलों से

स्त्रियां
अभी भी खड़ी हैं
पलायन के पहाड़ के सम्मुख
सीना तान कर

जब तक खड़ी हैं स्त्रियां
तब तक खड़ा है पहाड़।