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खड़ी है द्वार पर बारिश / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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खड़ी है द्वार पर बारिश
करो स्वागत!
करो स्वागत!!

घिरे, घुमड़े, चले आए
उमड़ काले कुहिर बादल
किसी के गाल पर रोली
किसी का बह गया काजल
झकोरे ले रही पुरबा
कहीं पनघट कहीं घूँघट
गहा आँचल किसी ने तो
उलझ बैठी किसी से लट
किसी ने भेजकर पपिहा
लिखा होगा
हमें भी खत।

बरसते मेघ घिर-घिर कर
निचुड़ते हैं खुले कुंतल
चटकते बन्ध कंचुकि के
ढलकते रस कलश छल-छल
शिखर भीगे, लरजती देह की
अँगड़ाइयाँ साधे
नदी उफना रही है
कौन अब ये लहरियाँ बाँधे
सँभाले कब संभलती,
कूल की
बाहें हुई आहत।

निखरता रूप धुल-धुल कर
बिखरता गन्ध का मादन
उठाये नाचते फिरते
हमारे नयन के दरपन
भँवर में डूबता है मन
उबरना कौन चाहेगा
भला यह क्षण सुहाना
लौट कर फिर कौन लायेगा?
प्रणय के चार क्षण
ही तो
जनम का
सत्य है शाश्वत!

ये बातें, हैं नहीं नूतन
बहुत बूढ़ी पुरानी हैं
मगर इनमें हमारी
झूमती गाती जवानी है
ये कुछ भी, अब नहीं बाहर
सभी भीतर समाया है
हमारे घर
भरी बरसात में
अब कौन आया है?
मगर
हारी नहीं है
आज भी
जीवन्त है चाहत।