खण्ड-16 / सवा लाख की बाँसुरी / दीनानाथ सुमित्र
301
नहीं चाहिए मंच ही, नहीं चाहिए नाम।
कविता लिखना काम है, यही रहेगा काम।।
302
घर मुझको बाँधो नहीं, जाना है परदेस।
तू है माया मोहिनी, पाया खूब क्लेष।।
303
तेरी ही छाया मिली, है तेरी ही आस।
कविता तू मेरी धरा, तू मेरा आकाश।।
304
होली में हुड़दंग की, नहीं ज़रूरत आज।
रिस्तों का टूटा हृदय, टूटा सकल समाज।।
305
साधु-संत है जेल में, अपराधी घर मौज।
बिना हाथ बंदूक के, दौड़ रही है फौज।।
306
कविता करना खेल है, करता हूँ यह खेल।
जो खेले इस खेल को, अरि से राखे मेल।।
307
लिखा पढ़ा मैं हूँ नहीं, लेकिन हूँ विद्वान।
जीवन मेरा ज्ञान हैं, औ अनुभव विज्ञान।।
308
मैंने दुनिया जान ली, यह मुझसे अनजान।
मुझे जानना है कठिन, इतना हूँ आसान।।
309
तेरी बातें मान ली, मेरी बातें मान।
मैं जिसको चावल कहूँ, मत कह उसको धान।।
310
दर्द हृदय का बाँटने, जाऊँगा मैं गाँव।
बरगद, पीपल, नीम की, जहाँ अभी तक छाँव।।
311
चंदन वन है जल रहा, मरुथल में बरसात।
संग विसंगति समय की, रहती है दिन-रात।।
312
आँसू की बरसात पर, अब मन चाहे रोक।
कैसे सह लूँ बोलिये, दुनिया भर का शोक।।
313
तेरी-मेरी दोस्ती, नहीं रेत की भीत।
नभ की तरह अनन्त है, तारों जैसी प्रीत।।
314
दीप न बुझने पायगा, मन में रख संकल्प।
सच की ताक़त है बड़ी, तम की ताक़त अल्प।।
315
हम आये हम जायगें, याद रखो दिन-रैन।
धन की चाहत मत करो, प्रेम बसाओ नैन।।
316
कहा प्यार ने कल मुझे, सुन लो मेरे यार।
पाकिट भर ले द्रव्य से, तब जाना बाजार।।
317
नफरत के संसार में, मिलना मुश्किल प्यार।
जिसको यह मिल जायगा, वह होगा सरदार।।
318
राजा सोया महल में, दिये कान में तेल।
जनता मुँह बाये खड़ी, जैसे हो बकलेल।।
319
कविताई कैसे करुँ, बुद्धि हृदय से हीन।
फिर भी जो मैं लिख रहा, वह है काव्य नवीन।।
320
राजा सुख से चूर है, प्रजा रही दुख झेल।
बड़ा कठिन है लग रहा, अब सुख-दुख का मेल।।