361
लिखे सियासी खामियाँ, सत्य करे अभिव्यक्त।
कवि वह ही कहलायगा, स्याही जिसका रक्त।।
362
दीन, दलित का सारथी, उसकी ही आवाज।
रचता है साहित्य ही, नूतन-सबल समाज।।
363
मैं गायक हूँ पीर का, मैं जीवन का गीत।
मैं हूँ बाबा भारती, नहीं सकोगे जीत।।
364
दर्द, घुटन, आँसू, विरह, अगर न होते मित्र।
तो फिर कवि होता नहीं, दीनानाथ सुमित्र।।
365
माँ बिन तुलसी सूखती, माँ बिन सूना द्वार।
माँ केवल जननी नहीं, माँ तो है संसार।।
366
भोजन जो उपजा रहे, वही आज बदहाल।
जो कुछ भी होता नफा, खाते उसे दलाल।।
367
आँखों में छाने लगा, चमक-दमक का ख्वाब।
जूते हैं शोरूम में, भू पर पड़े किताब।।
368
निर्धन को भोजन नहीं, प्रभु को छप्पन भोग।
कैसी-कैसी सभ्यता, चला रहे हैं लोग।।
369
सावन आया सुबह में, घटा लिए घनघोर।
बरसा माँ के प्यार सा, खोल हृदय चहुँओर।।
370
सोना-चाँदी कुछ नहीं, कह कर गया कबीर।
मन जब हुआ कबीर तो, तन हो गया अमीर।।
371
वृद्ध जनों को चाहिए, सदा रहें वे मौन।
बिन सत्ता के पूछता, सकल विश्व में कौन।।
372
बाँझ प्रसव की वेदना, कभी न पाई जान।
जो रचता देता वही, रचना को सम्मान।।
373
हुआ-हुआ करते रहे, गीदड़ की संतान।
कभी सोचते ये नहीं, क्या है हिंदुस्तान।।
374
जीत उसी की है यहाँ, जिसमें बुद्धि अशेष।
जिसके पास न बुद्धि है, वह जाये परदेस।।
375
जी तू दास कबीर सा, बन तू तुलसी दास।
जनता के दुख दर्द का, रच तू नव इतिहास।।
376
जैसे बहती है नदी, बहा करेगी यार।
राह मोड़ने के लिए, कौन यहाँ तैयार।।
377
औरों के दुख पर कभी, करते नहीं विचार।
नेता हर सुख चाहते, औरों का सुख मार।।
378
रोया था अपने समय, जम कर दास कबीर।
हँसते थे उन पर सभी, जो थे खूब अमीर।।
379
मजा झूठ के साथ है, सच है दुख की खान।
इसीलिए तो झूठ के, सँग है सकल जहान।।
380
बड़ी-बड़ी ये कोठियाँ, बड़े-बड़े ये लोग।
झोपड़ियों में दुख घना, नर्क रहे सब भोग।।