खण्ड-1 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र
सोच रहे हो क्या अमरेन्दर अपनी कथा लिखूँ
आगे-पीछे, वत्र्तमान की अपनी व्यथा लिखूँ
वह भी छन्दों की ही लय पर, रगण-जगण के साथ
सौध बनाने निकले हो, और खाली दोनों हाथ
समझा तो होता यह तुमने कविता गद्य नहीं है
इसमें शब्द कहीं पर होता, होता अर्थ कहीं है
सीधे-सीधे सब कह डाले ऐसी छूट नहीं है
बाजारों में सस्ती चीजों की यह लूट नहीं है
दिखती है यह भले चुँआड़ी लेकिन गहरी झील
भीतर-भीतर यह शबरी है, ऊपर-ऊपर भील
कवि तो वह है, जिसमें स्मृति, मति भी हो, प्रज्ञा हो
उस कमान का कैसा गौरव, टूटी जिसकी ज्या हो
चंचल मन को लेकर क्या है काव्य देव को गढ़ना
आहार्या-सहजा को लेकर ही संभव है बढ़ना
तुमको तो वरदान नहीं है औपदेशिकी का भी
होने को घटमान कवि की मिली नहीं है चाभी
ऊपर से सारस्वत-सा ही दिखने का यह अभिनय
समझ नहीं पाये हो अब तक क्या वाणी का आशय
लोभ-लाभ के, अहंकार के तुम तो पुतला दिखते
तुमसे कविता क्या संभव है, ऋषि जो हैं, वह लिखते।
कविता तो है कठिन साधना, शब्दों की और रस की
अमरेन्दर यह बात कभी भी नहीं तुम्हारे वश की
लेकिन जिद् पर अड़े हुए हो तो कहना क्या; लिख लो
दुविधाओं के व्याल-व्यूह से जैसे भी हो, निकलो
अगर नहीं कह पाए मन का, जा कर रोग बनेगा
कोटि व्याधियों का तन तेरा निश्चय भोग बनेगा
न जाने क्या बोलोगे तुम, जिसका ओर न छोर
नींद तुम्हारी, स्वप्न तुम्हारे, चिन्ता घोर अघोर
इसीलिए कुछ लिखने से मैं क्यों रोकूंगा तुमको
कलाकार के हाथों में है धरे काल को, यम को
लेकिन यह भी बात सही है, कविता कठिन विधा है
तुम इसमें मारोगे बाजी, मुझको यह दुविधा है
यगण-मगण फिर तगण-रगण का खेल बहुत मुश्किल है
जाने कब लय कहाँ भंग हो, प्रेमी का यह दिल है
धर लो कल की राह, पंचकल-द्विकल और चतुष्कल
प्राकृत के ही छन्द दिलाते वार्णिक वृत के सौ फल
साधो, जितना साध सको तुम जगण-भगण और कल को
कविता रचने से पहले तुम धरो छन्द के बल को
भावों को बहने दो गति में, छन्दतरी पर चढ़ कर
कवि का धर्म नहीं कुछ भी है पहले उससे बढ़ कर
इसी यान पर ठीक-ठाक से भाव सुरक्षित चलते
शोक, ओज, उत्साह, जुगुप्सा, रति को देखा मिलते।