खण्ड-1 / सवा लाख की बाँसुरी / दीनानाथ सुमित्र
1
कवि करता है साधना, मंदिर उसका देश।
वह हरता निज शब्द से, जन-जन-मन का क्लेश।।
2
पत्थर में भी प्राण को, भरता कवि का गान।
कवि होना है विश्व में, स्वयं एक सम्मान।।
3
कविता जीवन ज्ञान है, है आधार-वितान।
कविता हमें करा रही, सही ग़लत का भान।।
4
अंधकार में दीप ज्यों, त्यों ही है कवि कर्म।
तम का नाश करे सदा, समझे जीवन मर्म।।
5
पांच सितारा में रहे, नौकर रखते सात।
ऐसे जनवादी रचें, होरी के हालात।।
6
देता सारे विश्व को, सपनों का संसार।
खुद पीड़ा कवि झेलता, जग करता उजियार।।
7
समय समय पर हैं किए, कवि ने विविध प्रयत्न।
मंथन कर साहित्य का, बाँटे लाखों रत्न।।
8
पर पीड़ा में भूलकर, निज राहों के शूल।
कवि जग को देते रहे, प्रेम-दया के फूल।।
9
जिनके घर नौकर कई, साफ कर रहे फर्श।
जनकवि वह कहला रहे, लिखे दलित संघर्ष।।
10
लिखे सियासी खामियाँ, सत्य करे अभिव्यक्त।
कवि वह ही कहलायगा, स्याही जिसका रक्त।।
11
युग-युग से लिखते रहे, कवि जीवन साहित्य।
जीवित कवि हैं आज भी, बन जग में आदित्य।।
12
ढेंचू-ढेंचू कर रहे, काव्य कर्म से दूर।
कुछ कवि गदहा कर्म कर, आज हुए मशहूर।।
13
कविता को लज्जित करे, आज मंच की मांग।
बौराई-सी नाचती, चढ़े जिस तरह भांग।।
14
सबके हित का जो लिखे, वह साहित्य महान।
हुआ नहीं साहित्य है, दरबारी गुणगान।।
15
दिखलाता भटकाव को, हरता मन का घाव।
जो पढ़ता साहित्य है, लेता नहीं तनाव।।
16
जीवन भर रचता रहा, जो जीवन की पीर।
वही रचे साहित्य को, बनता वही कबीर।।
17
सहज, सरल, जन-ग्राह्य हो, यदि उसमें लालित्य।
तब जाकर हो पायगा, अमर रचा साहित्य।।
18
दीन, दलित का सारथी, उसकी ही आवाज।
रचता है साहित्य ही, नूतन-सबल समाज।।
19
गौरव पाता देश है, यदि उन्नत साहित्य।
यह दर्पण है देश का, नहीं सिर्फ लालित्य।।
20
लोक समझ से दूर है, कैसा है साहित्य।
आलोचक ढूँढे फिरे, नहीं भाव लालित्य।।