भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खण्ड-3 / सवा लाख की बाँसुरी / दीनानाथ सुमित्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

41
नस-नस में जो ताप था, वही हुआ अभिव्यक्त।
मेरा कवि धन के प्रति, हुआ नहीं आसक्त।।
 
42
जब जब सच की बात की, तुमने किया प्रहार।
पर कवि हूँ कवि धर्म से, मुझको बेहद प्यार।।

43
तुलसी, सूर, रहीम हूँ, मैं ही हूँ रसखान।
मैं कवि हूँ मैं राम को, कह सकता भगवान।।
 
44
कवि बनकर जीता रहा, रोज बना सुकरात।
विष में थी डूबी सुबह, विष में डूबी रात।।
 
45
सवा लाख की बाँसुरी, पाँच लाख की तान।
इन अधरों का क्या करूँ, व्यर्थ हो गए कान।।

46
रचने वाला ही बचे, जाने यह संसार।
लिखो सुमित्तर खूब तुम, कौन सकेगा मार।।
 
47
करे सुमित्तर रोज ही, हिन्दी का सम्मान।
गीत, ग़ज़ल, दोहा लिखे, बाँटे भाव महान।।
 
48
आँसू के ही रंग से, दोहे लिखा हजार।
दीनानाथ सुमित्र का, कविता ही संसार।।

49
सींचा मैंने शब्द को, पिला-पिला तन-रक्त।
तब जाकर दो पक्ति में, किया भाव को व्यक्त।।
 
50
ग़ज़ल, गीत, दोहे विविध, रचता हूँ दिन-रात।
पर ये यूँ लिक्खे नहीं, झेला है आघात।।
 
51
कौन वहाँ तेरी सुने, दीनानाथ सुमित्र।
लोभी, दंभी, चोर को, जहाँ चढ़ाते इत्र।।

52
उर में ममता है भरी, हाथों में आशीष।
माँ तेरे आगे सदा, नत हैं मेरे शीश।।

53
माँ जननी का रूप है, माँ ही पालनहार।
जगत चरण को पूजता, करो नमन स्वीकार।।

54
माता इस संसार में, देती सुख की छाँव।
अपनापन पाना अगर, इक माता ही ठाँव।।

55
माँ ही जग का मूल है, माँ जग का आधार।
माँ के चरणों में बसा, भव मुक्ती का द्वार।।

56
माँ रातों को जागती, सोती है संतान।
मात बीज को पालकर, करती वृक्ष समान।।
 
57
पल भर में ही छोड़ते, दर्द हमारा साथ।
माँ जब सिर पर प्यार से, कभी फेरती हाथ।।

58
माँ होती करुणामयी, माँ दिल मोम समान।
बाल-व्यथा को देखकर, व्याकुल होते प्राण।।

59
निश्छिल-निर्मल प्रेम का, ममता का भण्डार।
इस जग में कोई नहीं, माँ के सदृश उदार।।

60
महिमा वर्णन कर सकूँ, शब्द न मेरे पास।
माँ तुम हो संसार में, भगवन का आभाष।।